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नियमसार
३१९
दर्शनमपि शुद्धात्मानं पश्यति। दर्शनज्ञानप्रभृत्यनेकधर्माणामाधारो ह्यात्मा। व्यवहारपक्षेऽपि केवलं परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य न चात्मसम्बन्धः सदा बहिरवस्थितत्वात्, आत्मप्रतिपत्तेरभावात् न सर्वगतत्वम्; अतःकारणादिदं ज्ञानं न भवति, मृगतृष्णाजलवत् प्रतिभासमात्रमेव। दर्शनपक्षेऽपि तथा न केवलमभ्यन्तरप्रतिपत्तिकारणं दर्शनं भवति। सदैव सर्वं पश्यति हि चक्षुः स्वस्याभ्यन्तरस्थितां कनीनिकां न पश्यत्येव। अतः स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव। ततः स्वपरप्रकाशको ह्यात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण इति।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
इसलिये अविरुद्ध ऐसी स्याद्वादविद्यारूपी देवी सज्जनों द्वारा सम्यक् प्रकारसे निरंतर आराधना करने योग्य है। वहाँ (स्याद्वादमतमें), एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशकपना ही नहीं है; स्याद्वादमतमें दर्शन भी केवल शुद्धात्माको ही नहीं देखता (अर्थात् मात्र स्वप्रकाशक ही नहीं है)। आत्मा दर्शन, ज्ञान आदि अनेक धर्मोंका आधार है। ( वहाँ) व्यवहारपक्षसे भी ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो, सदा बाह्यस्थितपने कारण, (ज्ञानको) आत्माके साथ संबंध नहीं रहेगा और (इसलिये) आत्मप्रतिपत्तिके अभावके कारण सर्वगतपना (भी) नहीं बनेगा। इस कारणसे, यह ज्ञान होगा ही नहीं (अर्थात् ज्ञानका अस्तित्व ही नहीं होगा), मृगतृष्णाके जलकी भाँति आभासमात्र ही होगा। इसीप्रकार दर्शनपक्षसे भी, दर्शन केवल "अभ्यंतरप्रतिपत्तिका ही कारण नहीं है, (सर्वप्रकाशनका कारण है); (क्योंकि) चक्षु सदैव सर्वको देखता है, अपने अभ्यंतरमें स्थित कनीनिकाको नहीं देखता (इसलिये चक्षुकी बातसे ऐसा समझमें आता है कि दर्शन अभ्यंतरको देखे और बाह्यस्थित पदार्थों को न देखे ऐसा कोई नियम घटित नहीं होता)। इससे, ज्ञान और दर्शनको (दोनोंको) स्वपरप्रकाशकपना अविरुद्ध ही है। इसलिये (इसप्रकार) ज्ञानदर्शनलक्षणवाला आत्मा स्वपरप्रकाशक है।
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी टीकामें चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि:
* आत्मप्रतिपत्ति = आत्माका ज्ञान; स्वको जानना सो। * अभ्यंतरप्रतिपत्ति = अंतरंगका प्रकाशन; स्वको प्रकाशना सो।
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