Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 347
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार तथा हि ( स्रग्धरा ) जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा । तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः।। ( मंदाक्रांता ) ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्वतं ज्ञेयजालम् । दृष्टि: साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा ताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ।। २७७ ।। "" णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं । ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।। १६२ ।। ३२० “[ श्लोकार्थ :- ] जिसने कर्मोंको छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, वर्तमान और भावी समस्त विश्वको ( अर्थात् तीनों कालकी पर्यायों सहित समस्त पदार्थोंको ) युगपत् जानता होने पर भी मोहके अभावके कारण पररूपसे परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त ज्ञेयाकारोंको अत्यंत विकसित ज्ञप्तिके विस्तार द्वारा स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है। " और (इस १६१ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ): [ श्लोकार्थ:-] ज्ञान एक सहजपरमात्माको जानकर लोकालोकको अर्थात् लोकालोकसंबंधी ( समस्त ) ज्ञेयसमूहको प्रगट करता है ( - जानता है)। नित्यशुद्ध ऐसा क्षायिक दर्शन (भी) साक्षात् स्वपरविषयक है ( अर्थात् वह भी स्वपरको साक्षात् प्रकाशित करता है)। उन दोनों (ज्ञान तथा दर्शन ) द्वारा आत्मदेव स्वपरसंबंधी ज्ञेयराशिको जानता है (अर्थात् आत्मदेव स्वपर समस्त प्रकाश्य पदाथको प्रकाशित करता है ) । २७७ । पर ही प्रकाशे ज्ञान तो हो ज्ञानसे दृग भिन्न रे । परद्रव्यगत नहिं दर्श ! - वर्णित पूर्व तब मंतव्य रे ।। १६२ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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