Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 341
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार ३१४ ( मंदाक्रांता) 'बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतन्नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्। एकाकारस्वरसभरतोत्यन्तगंभीरधीरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि।।'' तथा हि ___(स्रग्धरा) आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्ति: मुक्तिश्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति। शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति।। २७२ ।। जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।। १६० ।। “[ श्लोकार्थ:-] कर्मबंधके छेदनसे अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षका अनुभव करता हआ. नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकांतशुद्ध (-कर्मका मैल न रहनेसे जो अत्यंत शुद्ध हुआ है ऐसा), तथा एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकारसे परिणमित) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यंत गंभीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा ( –सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ), अपनी अचल महिमामें लीन हुआ।" और (इस १५९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते है ): [ श्लोकार्थ:-] व्यवहारनयसे यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा निरंतर विश्वको वास्तवमें जानता है और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनीके कोमल मुखकमल पर कामपीड़को तथा सौभाग्यचिह्नवाली शोभाको फैलाता है। निश्चयसे तो, जिन्होंने मल और कलेशको नष्ट किया है ऐसे वे देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूपको अत्यंत जानते हैं। २७२। ज्यों ताप और प्रकाश रविके एक सँग ही वर्तते । त्यों केवली को ज्ञान-दर्शन एक साथ प्रवर्तते ।। १६०।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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