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नियमसार
३०१
नियमालोचनाश्च । पौद्गलिकवचनमयत्वात्तत्सर्वं स्वाध्यायमिति रे शिष्य त्वं जानीहि इति।
(मंदाक्रांता) मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः । नित्यानंदाद्यतुलमहिमाधारके स्वस्वरूपे स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श ।। २६३ ।।
तथा चोक्तम्
''परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खणा य धम्मकहा।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होदि सज्झाउ।।''
नियम और आलोचना भी (पुद्गल-द्रव्यात्मक होनेसे ) ग्रहण करनेयोग्य नहीं है। वह सब पौद्गलिक वचनमय होनेसे स्वाध्याय है ऐसा हे शिष्य! तू जान।
[अब यहाँ टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[श्लोकार्थ:-] ऐसा होनेसे , मुक्तिरूपी स्त्रीके पुष्ट स्तनयुगलके आलिंगनसौख्यकी स्पृहावाला भव्य जीव समस्त वचनरचनाको सर्वदा छोड़कर, नित्यानंद आदि अतुल महिमाके धारक निजस्वरूपमें स्थित रहकर, अकेला (निरालंबरूपसे) सर्व जगतजालको (समस्त लोकसमूहको) तृण समान (तुच्छ ) देखता है। २६३।
इसीप्रकार ( श्री मूलाचारमें पंचाचार अधिकारमें २१९ वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि:
“[गाथार्थ:-] परिवर्तन (पढ़े हुए को दुहरा लेना वह), वाचना (शास्त्रव्याख्यान), पृच्छना ( शास्त्रश्रवण), अनुप्रेक्षा (अनित्यत्वादि बारह अनुप्रेक्षा) और धर्मकथा (६३ शलाकापुरुषोंके चरित्र)-ऐसे पाँच प्रकारका, स्तुति तथा मंगल सहित, स्वाध्याय
* स्तुति = देव और मुनिको वंदन। (धर्मकथा, स्तुति और मंगल मिलकर स्वाध्यायका पाँचवाँ प्रकार माना जाता है।)
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