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जीव अधिकार
इति कार्यकारणरूपेण स्वभावदर्शनोपयोगः प्रोक्तः। विभावदर्शनोपयोगोऽप्युत्तरसूत्रस्थितत्वात् तत्रैव दृश्यत इति।
(इन्द्रवज्रा) दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकमेकमेव चैतन्यसामान्यनिजात्मतत्त्वम्। मुक्तिस्पृहाणामयनं तदुच्चैरेतेन मार्गेण विना न मोक्षः।। २३ ।।
चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिट्ठि त्ति। पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो।। १४ ।।
चक्षुरचक्षुरवधयस्तिस्रोपि भणिता विभावदृष्टय इति। पर्यायो द्विविकल्पः स्वपरापेक्षश्च निरपेक्षः।। १४ ।।
अशुद्धदृष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम्।
इसप्रकार कार्यरूप और कारणरूप स्वभावदर्शनोपयोग कहा। विभावदर्शनोपयोग अगले सूत्रमें (१४ वीं गाथामें) होनेसे वहीं दर्शाया जायेगा।
[अब, १३ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं :]
[ श्लोकार्थ:-] दृशि-ज्ञप्ति-वृत्तिस्वरूप (दर्शनज्ञानचारित्ररूपसे परिणमित ) ऐसा जो एक ही चैतन्यसामान्यरूप निज आत्मतत्त्व , वह मोक्षेच्छुओंको ( मोक्षका) प्रसिद्ध मार्ग है; इस मार्ग बिना मोक्ष नहीं है। २३।
गाथा १३ अन्वयार्थ:-[ चक्षुरचक्षुरवधयः ] चक्षु , अचक्षु और अवधि [ तिस्रः अपि] यह तीनों [विभावदृष्टयः] विभावदर्शन [इति भणिताः] कहे गये हैं। [ पर्यायः द्विविकल्पः] पर्याय द्विविध है : [ स्वपरापेक्षः ] स्वपरापेक्ष [स्व ने परनी अपेक्षा युक्त] [च ] और [ निरपेक्षः ] निरपेक्ष।
टीका:---यह, अशुद्ध दर्शनकी तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्यायकी सूचना
चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन ये विभाविक गर्श है। निरपेक्ष, स्वपरापेक्ष-ये पर्याय द्विविध विकल्प है ।।१४।।
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