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नियमसार
सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य निरावरणस्वभावस्य स्वस्वभावसत्तामात्रस्य परमचैतन्यसामान्यस्वरूपस्य अकत्रिमपरमस्वस्वरूपाविचलस्थितिसनाथशुद्धचारित्रस्य नित्यशुद्धनिरंजनबोधस्य निखिलदुरघवीरवैरिसेनावैजयन्तीविध्वंसकारणस्य तस्य खलु स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव। अन्या कार्यदृष्टि: दर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेण जातैव। अस्य खलु क्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य स्वात्मोत्थपरमवीतरागसुखसुधासमुद्रस्य यथाख्याताभिधानकार्यशुद्धचारित्रस्य साद्यनिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मकस्य त्रैलोक्यभव्यजनताप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य तीर्थकरपरमदेवस्य केवलज्ञानवदियमपियुगपल्लोकालोकव्यापिनी। परभावोंको अगोचर ऐसा सहज-परमपारिणामिकभावरूप जिसका स्वभाव है, जो कारणसमयसारस्वरूप है, निरावरण जिसका स्वभाव है, जो निज स्वभावसत्तामात्र है, जो परमचैतन्यसामान्यस्वरूप है, जो अकृत्रिम परम स्व-स्वरूपमें अविचलस्थितिमय शुद्धचारित्रस्वरूप है, जो नित्य-शुद्ध-निरंजनज्ञानस्वरूप है और जो समस्त दुष्ट पापोंरूप वीर शत्रु सेनाकी ध्वजाके नाशका कारण है ऐसे आत्माके यथार्थ स्वरूपश्रद्धानमात्र ही है ( अर्थात् कारणदृष्टि तो वास्तवमें शुद्धात्माकी स्वरूपश्रद्धामात्र ही है)।
दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय-ज्ञानावरणीयादि घातिकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होती है। इस क्षायिक जीवको--जिसने सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान द्वारा तीन भुवनको जाना है; निज आत्मासे उत्पन्न होनेवाले परम वीतराग सुखामृतका जो समुद्र है, जो यथाख्यात नामक कार्यशुद्धचारित्रस्वरूप है, जो सादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक है, और जो त्रिलोकके भव्य जनोंको प्रत्यक्ष वन्दनायोग्य है, ऐसे तीर्थंकरपरमदेवजको--केवलज्ञानकी भाँति यह (कार्यदृष्टि) भी युगपत् लोकालोकमें व्याप्त होनेवाली है।
विभावभावोंका आश्रय करनेसे परमपारिणामिकभावका आश्रय नहीं होता। परमपारिणामिकभावका आश्रय करनेसे ही सम्यकत्वसे लेकर मोक्ष दशा तककी दशाएँ
प्राप्त होती हैं। १- स्वरूपश्रद्धान = स्वरूप-अपेक्षासे श्रद्धान। [जिसप्रकार कारणस्वभावज्ञान अर्थात्
सहजज्ञान स्वरूपप्रत्यक्ष है, उसीप्रकार कारणस्वभावदृष्टि अर्थात् सहजदर्शन
स्वरूपश्रद्धानमात्र ही है।] २- तीर्थंकरपरमदेव शुद्धसद्भूतव्यवहारनयस्वरूप है, कि जो शुद्धसद्भूतव्यवहारनय सादि
अनन्त, अमूर्तिक और अतीन्द्रियस्वभाववाला है।
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