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नियमसार
२२५
चान्तर्मुखाकारपरमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति।
(मंदाक्रांता) प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः। अन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्ताः पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत्।। १८० ।।
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं। पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो।।११४ ।।
क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां निर्ग्रहणम्। प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिंता च निश्चयतः।। ११४ ।।
परम जिनयोगीश्वर , पापरूपी अटवीको (जलाने के लिये) अग्नि समान, पाँच इंद्रियों के विस्तार रहित देहमात्र परिग्रहके धारी, सहजवैराग्यरूपी महलके शिखरके शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस-झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभको यह प्रायश्चित्त निरंतर कर्तव्य है।
[अब इस ११३ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं:]
[श्लोकार्थ:-] मुनियोंको स्वात्माका चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुखमें रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पापकी खिराकर मुक्ति प्राप्त करते हैं। यदि मुनियोंको ( स्वात्मा के अतिरिक्त) अन्य चिंता हो तो वे विमूढ़ कामात पापी पुनः पापको उत्पन्न करते हैं। इसमें क्या आश्चर्य है ?। १८० ।
गाथा ११४ अन्वयार्थ:-[ क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां ] क्रोध आदि स्वकीय भावोंके (-अपने विभावभावोंके ) क्षयादिककी भावनामें [ निर्ग्रहणम् ] रहना [ च ] और
क्रोधादि आत्म-विभावके क्षय आदिकी जो भावना । है नियत प्रायश्चित्त वह जिसमें स्वगुणकी चिंतना ।। ११४ ।।
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