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निश्चय-परमावश्यक अधिकार
२८८
( पृथ्वी) जयत्ययमुदारधीः स्ववशयोगिवृन्दारक: प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः। स्फुटोत्कटविवेकतः स्फुटितशुद्धबोधात्मिकां सदाशिवमयां मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम्।। २४७ ।।
(अनुष्टुभ् ) प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृतेः। अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्तिसंपदः।। २४८ ।।
(अनुष्टुभ् ) इत्थं बुद्धा जिनेन्द्रस्य मार्ग निर्वाणकारणम्। निर्वाणसंपदं याति यस्तं वंदे पुनः पुनः।। २४९ ।।
(द्रुतविलंबित) स्ववशयोगिनिकायविशेषक प्रहतचारुवधूकनकस्पृह। त्वमसि नश्शरणं भवकानने स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम्।। २५० ।।
। [अब इस १४६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज आठ श्लोक। कहते हैं:--]
[श्लोकार्थ:-] उदार जिसकी बुद्धि है, भवका कारण जिसने नष्ट किया है, पूर्व कर्मावलिका जिसने हनन कर दिया है और स्पष्ट उत्कट विवेक द्वारा प्रगट-शुद्धबोधस्वरूप सदाशिवमय संपूर्ण मुक्तिको जो प्रमोदसे प्राप्त करता है, ऐसा वह स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवंत हैं। २४७।
[श्लोकार्थ:-] कामदेवका जिन्होंने नाश किया है और (ज्ञान-दर्शन-चारित्रतप-वीर्यात्मक) पंचाचारसे सुशोभित जिनकी आकृति है-ऐसे अवंचक (मायाचार रहित) गुरुका वाक्य मुक्तिसंपदाका कारण है। २४८ ।
[ श्लोकार्थ:-] निर्वाणका कारण ऐसा जो जिनेंद्रका मार्ग उसे इसप्रकार जानकर जो निर्वाणसंपदाको प्राप्त करता है, उसे मैं पुनः पुनः वंदन करता हूँ। २४९ ।
[ श्लोकार्थ:-] जिसने सुंदर स्त्री और सुवर्णकी स्पृहाको नष्ट किया है ऐसे हे योगी समूहमें श्रेष्ठ स्ववश योगी! तू हमारा-कामदेवरूपी भीलके तीरसे घायल चित्तवालेका
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