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http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धनिश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार
हैं:]
कर्तुमत्यासन्नभव्यजीवः समर्थो यस्मात् तत एव पापाटवीपावक इत्युक्तम्। अतः पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति।
( मंदाक्रांता )
यः शुद्धात्मन्यविचलमनाः शुद्धमात्मानमेकं नित्यज्योतिःप्रतिहततमःपुंजमाद्यन्तशून्यम्। ध्यात्वाजस्रं परमकलया सार्धमानन्दमूर्तिं जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशिः।। १९० ।।
अति-आसन्नभव्य जीव समर्थ है, इसलिये उस जीवको पापाटवीपावक ( - पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि ) कहा है; ऐसा होनेसे पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आलोचना आदि सब ध्यान ही है ( अर्थात् परमपारिणामिक भावकी भावनारूप जो ध्यान वही महाव्रत–प्रायश्चितादि सब कुछ है ) ।
[ अब इस ११९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
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[ श्लोकार्थ :- ] जिसने नित्य ज्योति द्वारा तिमिरपुंजका नाश किया है, जो आदि-अंत रहित है, जो परम कला सहित है और जो आनंदमूर्ति है - ऐसे एक शुद्ध आत्माको जो जीव शुद्ध आत्मामें अविचल 'मनवाला होकर निरंतर ध्याता है, ऐसा यह आचारराशि जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है । १९० ।
नीचे बैठ गया हो ऐसे जल समान औपशमिक सम्यक्त्वादिका ), क्षायोपशमिकभावोंका (अपूर्ण ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि पर्यायोंका ) तथा क्षायिकभावोंका ( क्षायिक सम्यक्त्वादि सर्वथा शुद्ध पर्यायोंका ) भी आलंबन छोड़ना; मात्र परमपारिणामिकभावका-शुद्धात्मद्रव्यसामान्यका–आलंबन लेना चाहिये । उसका आलंबन लेने वाला भाव ही महाव्रत, समिति, गुप्ति, प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त आदि सब कुछ है। (आत्मस्वरूपका आलंबन, आत्मस्वरूपका आश्रय, आत्मस्वरूपके प्रति संमुखता, आत्मस्वरूप प्रति झुकाव, आगस्वरूपका परमपारिणामिकभावकी भावना, 'मैं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य हूँ' ऐसी परिणति- इन सबका एक अर्थ है । )
ध्यान,
१। मन = भाव ।
२। आचारराशि = चारित्रपुंज, चारित्रसमूहरूप ।
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