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नियमसार
२७३
एवमुक्तप्रकारस्वात्मसंबन्धिनी शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तनभरगाढोपगूढनिर्भरानंदपरमसुधारसपूरपरितृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः स्फुटितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति।
(शार्दूलविक्रीडित) नाभेयादिजिनेश्वरान गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान्। पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगनासंहते: शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे।। २३१ ।।
(आर्या) वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्तमार्गेण। कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति।। २३२ ।।
प्रकारसे निज आत्माके साथ संबंध रखनेवाली शुद्धनिश्चययोगकी उत्तम भक्ति करके, परमनिर्वाणवधूके अति पुष्ट स्तनके गाढ़ आलिंगनसे सर्व आत्मप्रदेशमें अत्यंत-आनंदरूपी परमसुधारसके पूरसे परितृप्त हुए; इसलिये 'स्फूटित-भव्यत्वगुणवाले हे महाजनो! तुम निज आत्माको परम वीतराग सुखकी देनेवाली ऐसी वह योगभक्ति करो।
[अब इस परम-भक्ति अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोक कहते है: ]
[ श्लोकार्थ:-] गुणमें जो बड़े हैं, जो त्रिलोकके पुण्यकी राशि हैं ( अर्थात् जिनमें मानों कि तीन लोकके पुण्य एकत्रित हुए हैं), देवेंद्रोंके मुकुटकी किनारी पर प्रकाशमान माणिकपंक्तिसे जो पूजित है (अर्थात् जिनके चरणारविंदमें देवेंद्रोंके मुकुट झुकते हैं), (जिनके आगे) शची आदि प्रसिद्ध इंद्राणियोंके साथमें शक्रंद्र द्वारा किये जानेवाले नृत्य, गान तथा आनंदसे जो सुशोभित है, और श्री तथा कीर्तिके जो स्वामी हैं, उन श्री नाभिपुत्रादि जिनेश्वरोंका मैं स्तवन करता हूँ। २३१।।
[श्लोकार्थ:-] श्री वृषभसे लेकर श्री वीर तकके जिनपति भी यथोक्त मार्गसे (पूर्वोक्त प्रकारो) योगभक्ति करके निर्वाणवधूके सुखको प्राप्त हुए हैं। २३२।
* स्फुटित = प्रकटित; प्रगट हुए; प्रगट। * श्री = शोभा; सौंदर्य; भव्यता।
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