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अजीव अधिकार
सति न ह्यलोकाकाशस्य हस्वत्वमिति।
(मालिनी) इह गमननिमित्तं यत्स्थितेः कारणं वा यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवीणम्। तदखिलमवलोक्य द्रव्यरूपेण सम्यक् प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः।। ४६ ।।
समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहव होइ तिवियप्पं। तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।। ३१ ।।
समयावलिभेदेन तु द्विविकल्पोऽथवा भवति त्रिविकल्पः। अतीत: संख्यातावलिहतसंस्थानप्रमाणस्तु।।३१ ।।
-इसप्रकार (इस गाथाका) अर्थ है।
( यहाँ ऐसा ध्यानमें रखना कि) लोकाकाश, धर्म और अधर्म समान प्रमाणवाले होनेसे कहीं अलोकाकाशको न्यूनता-छोटापन नहीं है ( –अलोकाकाश तो अनंत हैं)।
[ अब ३० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[ श्लोकार्थ:-] यहाँ ऐसा आशय है कि-जो (द्रव्य ) गमनका निमित्त है, जो (द्रव्य) स्थितिका कारण है, और जो (द्रव्य) सर्वको स्थान देने में प्रवीण है, उन सबको सम्यक् द्रव्यरूपसे अवलोककर (-यथार्थतः स्वतंत्र द्रव्य रूपसे समझकर ) भव्यसमूह सर्वदा निज तत्त्वमें प्रवेश करो। ४६ ।
गाथा ३१ अन्वयार्थ:-[ समयावलिभेदेन तु] समय और आवलिके भेदसे [ द्विविकल्प:] व्यवहारकालके दो भेद हैं [अथवा ] अथवा [ त्रिविकल्पः भवति] (भूत, वर्तमान और भविष्यके भेदसे) तीन भेद है। [अतीतः ] अतीत काल [ संख्यातावलिहतसंस्थानप्रमाणः तु] (अतीत) संस्थानोंके और संख्यात आवलिके गुणाकार जितना है।
आवलि , समय दो भेद या भूतादि त्रयविध जानिये। संस्थानसे संख्यातगुण आवलि अतीत प्रमानिये।।३१।।
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