________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
कश्चित् परमजिनयोगीश्वरः साधुः अत्यासन्नभव्यजीवः अध्यात्मभाषयोक्तस्वात्माश्रितनिश्चयधर्मध्याननिलीनः निर्भेदरूपेण स्थितः, अथवा सकलक्रियाकांडाडंबर
व्यवहारनयात्मकभेदकरणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्तनिखिलकरणग्रामागोचरपरमतत्त्वशुद्धान्त
स्तत्त्वविषयभेदकल्पनानिरपेक्षनिश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे
तिष्ठति च,
स
च
निरवशेषेणान्तर्मुखतया प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाणां परित्यागं करोति, तस्मात् स्वात्माश्रितनिश्चयधर्म- शुक्लध्यानद्वितयमेव सर्वातिचाराणां प्रतिक्रमणमिति ।
१७४
(अनुष्टुभ् )
शुक्लध्यानप्रदीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ ।
स योगी तस्य शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति स्वयम् ।। १२४ ।।
जो कोई परमजिनयोगीश्वर साधु - अति- आसन्नभव्य जीव, अध्यात्मभाषामें पूर्वोक्त स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यानमें लीन होता हुआ अभेदरूपसे स्थित रहता है, अथवा सकल क्रियाकांडके आडंबर रहित और व्यवहारनयात्मक भेदकरण तथा ध्यान- ध्येयके विकल्प रहित, समस्त इंद्रियसमूहसे अगोचर ऐसा जो परम तत्त्व - शुद्ध अंतः तत्त्व, तत्संबंधी भेदकल्पनासे `निरपेक्ष निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपसे स्थित रहता हैं, वह (साधु) निरवशेषरूपसे अंतर्मुख होनेसे प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त मोहरागद्वेषका परित्याग करता हैं; इसलिये ( ऐसा सिद्ध होता है कि ) स्वात्माश्रित ऐसे जो निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यान, वे दो ध्यान ही सर्व अतिचारोंका प्रतिक्रमण है।
[अब इस ९३ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं: ]
[ श्लोकार्थ :- ] यह शुक्लध्यानरूपी दीपक जिसके मनोमंदिरमें प्रकाशित हुआ, वह योगी है, उसे शुद्ध आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष होता है । १२४ ।
१ भेदकरण = भेद करना वह; भेद डालना वह । [ समस्त भेदकरण-ध्यान- ध्येयके विकल्प भी व्यवहारनयस्वरूप है । ]
=
२ निरपेक्ष
उदासीन; निःस्पृह; अपेक्षा रहित । [ निश्चयशुक्लध्यान शुद्ध अंतः तत्त्व संबंधी भेदोंकी कल्पनासे भी निरपेक्ष है । ]
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com