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जीव अधिकार
प्रशस्तरागः, स्त्रीराजचौरभक्तविकथालापाकर्णन-कौतूहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः। चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोह: प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव। चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं प्रशस्तमितरदप्रशस्तमेव। तिर्यङ्मानवानां वयःकृतदेहविकार एव जरा। वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यसंजातकलेवरविपीडैव रुजा। सादिसनिधनमूर्तेन्द्रिय-विजातीयनरनारकादि विभावव्यंजनपर्यायविनाश एव मृत्युरित्युक्तः। अशुभकर्मविपाक-जनितशरीरायाससमुप जातपूतिगंधसम्बन्धवासनावासितवार्बिन्दुसंदोह: स्वेदः। अनिष्टलाभः खेदः। सहजचतुरकवित्वनिखिलजनताकर्णामृतस्यंदिसहजशरीरकुलबलैश्वर्यैरात्माहंकारजननो मदः। मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव रतिः। परमसमरसीभाव भावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्वदर्शनाद्विस्मयः। केवलेन शुभकर्मणा, केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रेण देवनारकतिर्यङ्मनुष्यपर्यायेषूत्पत्तिर्जन्म। वह प्रशस्त राग है और स्त्री संबंधी, राजा संबंधी, चोर संबंधी तथा भोजन संबंधी विकथा कहने तथा सुननेके कौतूहलपरिणाम वह अप्रशस्त राग है। (६) चार प्रकारके श्रमणसंघ के प्रति वात्सल्य संबंधी मोह वह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त ही है। (७) धर्मरूप तथा शुक्लरूप चिंतन (-चिंता, विचार) प्रशस्त है और उसके अतिरिक्त (आर्तरूप तथा रौद्ररूप चिंतन) अप्रशस्त ही है। (८) तिर्यंचों तथा मनुष्योंको वयकृत देहविकार (-आयुके कारण होनेवाली शरीरकी जीर्णदशा) वही जरा है। (९) वात, पित्त और कफकी विषमतासे उत्पन्न होनेवाली कलेवर (-शरीर) संबंधी पीड़ा वही रोग है। (१०) सादि-सनिधन, मूर्त इंद्रियोंवाले, विजातीय नरनारकादि विभावव्यंजनपर्यायका जो विनाश उसी को मृत्यु कहा गया है। (११) अशुभ कर्मके विपाकसे जनित, शारीरिक श्रमसे उत्पन्न होनवालो. जो दर्गंधके संबंधके कारण बरी गन्धवाले जलबिंदओंका समह वह स्वेद है। (१२) अनिष्टकी प्राप्ति (अर्थात् कोई वस्तु अनिष्ट लगना) वह खेद है। (१३) सर्व जनताके ( -जनसमाजके) कानोंमें अमृत उँडेलनेवाले सहज चतुर कवित्वके कारण, सहज ( सुंदर) शरीरके कारण, सहज ( उत्तम) कुलके कारण, सहज बलके कारण तथा सहज ऐश्वर्यके कारण आत्मामें जो अहंकारकी उत्पत्ति वह मद है। (१४) मनोज्ञ (मनोहर-सुन्दर) वस्तुओंमें परम प्रीति सो रति है। (१५) परम समरसीभावकी भावना रहित जीवोंको ( परम समताभावके अनुभव रहित जीवोंको ) कभी पूर्व काल में न देखा हुआ देखने के कारण होनेवाला भाव वह विस्मय है। (१६) केवल शुभ कर्मसे देवपर्यायमें जो उत्पत्ति, केवल अशुभ कर्मसे नारकपर्यायमें जो उत्पत्ति, मायासे तिर्यंचपर्यायमें जो उत्पत्ति और शुभाशुभ मिश्र कर्मसे मनुष्यपर्यायमें जो उत्पत्ति , सो जन्म है।
* श्रमणके चार प्रकार इसप्रकार हैं: (१) ऋषि, (२) मुनि, (३) यति और (४) अनगार।
ऋद्धिवालें श्रमण वे ऋषि हैं; अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, अथवा केवलज्ञानवाले श्रमण वे मुनि हैं; उपशमक अथवा क्षपक श्रेणीमें आरूढ़ श्रमण वे यति है; और सामान्य साधु वे अनगार हैं। ऐसे चार प्रकारका श्रमणसंघ है।
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