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नियमसार
१०
रत्नत्रयस्य भेदकरणलक्षणकथनमिदम्। मोक्षःसाक्षादखिलकर्मप्रध्वंसनेनासादितमहानन्दलाभः। पूर्वोक्तनिरुपचाररत्नत्रयपरिणतिस्तस्य महानन्दस्योपायः। अपि चैषां ज्ञानदर्शनचारित्राणां त्रयाणां प्रत्येकप्ररूपणा भवति। कथम्, इदं ज्ञानमिदं दर्शनमिदं चारित्रमित्यनेन विकल्पेन। दर्शनज्ञानचारित्राणां लक्षणं वक्ष्यमाणसूत्रेषु ज्ञातव्यं भवति।
[ मंदाक्रांता] मोक्षोपायो भवति यमिनां शुद्धरत्नत्रयात्मा ह्यात्मा ज्ञानं न पुनरपरं दृष्टिरन्याऽपि नैव। शीलं तावन्न भवति परं मोक्षुभिः प्रोक्तमेतद्
बुद्ध्वा जन्तुर्न पुनरुदरं याति मातुः स भव्यः।। ११ ।। टीका:---रत्नत्रयके भेद करनेके सम्बन्धमें और उनके लक्षणोंके सम्बन्धमें यह कथन है।
समस्त कर्मोंके नाशद्वारा साक्षात् प्राप्त किया जानेवाला महा आनन्दका लाभ सो मोक्ष है। उस महा आनन्दका उपाय पूर्वोक्त निरुपचार रत्नत्रयरूप परिणति है। पुनश्च (निरुपचार रत्नत्रयरूप अभेदपरिणतिमें अंतर्भूत रहे हुए) इन तीनका--ज्ञान, दर्शन और चारित्रका--भिन्न-भिन्न निरूपण होता है। किस प्रकार ? यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह चारित्र है--इसप्रकार भेद करके। (इस शास्त्रमें) जो गाथासूत्र आगे कहे जायेंगे उनमें दर्शन-ज्ञान-चारित्रके लक्षण ज्ञात होंगे।
[ अब, चौथी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है : ]
[ श्लोकार्थ:---] मुनियोंको मोक्षका उपाय शुद्धरत्नत्रयात्मक (शुद्धरत्नत्रयपरिणतिरूप परिणमित) आत्मा है। ज्ञान इससे कोई अन्य नहीं है, दर्शन भी इससे कोई अन्य नहीं है और शील (चारित्र) भी अन्य नहीं है। --- यह, मोक्षको प्राप्त करनेवालोंने (अरिहन्तभगवन्तोंने) कहा है। इसे जानकर जो जीव पुनः माताके उदरमें नहीं आता, वह भव्य है। ११।
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