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जीव अधिकार
अस्य तु नियमशब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति।
[आर्या] इति विपरीतविमुक्तं रत्नत्रयमनुत्तमं प्रपद्याहम्।
अपुनभवभामिन्यां समुद्भवमनंगशं यामि।। १० ।। णियमं मोक्खउवायो तस्स फलं हवति परमणिव्वाणं। एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होइ।। ४ ।।
नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं भवति परमनिर्वाणम्।
एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येकप्ररूपणा भवति।। ४ ।। यह ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप नियम निर्वाणका कारण है। उस “नियम” शब्दको विपरीतके परिहार हेतु “ सार” शब्द जोड़ा गया है।
[अब तीसरी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है :]
[ श्लोकार्थ:---] इसप्रकार मैं विपरीत रहित (-विकल्परहित) अनुत्तम रत्नत्रयका आश्रय करके मुक्तिरूपी रमणीसे उत्पन्न अनङ्ग (-अशरीरी, अतीन्द्रिय, आत्मिक) सुखको प्राप्त करता हूँ। १०।
गाथा ४ अन्वयार्थ:-[ नियमः ] ( रत्नत्रयरूप) नियम [ मोक्षोपायः ] मोक्षका उपाय है; [ तस्य फलं] उसका फल [ परमनिर्वाणं भवति] परम निर्वाण है। [ अपि च ] पुनश्च (भेदकथन द्वारा अभेद समझानेके हेतु) [ एतेषां त्रयाणां] इन तीनोंका [प्रत्येकप्ररूपणा] भेद करके भिन्न – भिन्न निरूपण [ भवति ] होता है। १ – कारण जैसा ही कार्य होता है; इसलिये स्वरूपमें स्थिरता करनेका अभ्यास ही
वास्तवमें अनन्त काल तक स्वरूपमें स्थिर रह जानेका उपाय है। २ - विपरीत = विरुद्ध। [ व्यवहाररत्नत्रयरूप विकल्पोंको--पराश्रित भावोंको--छोड़कर
मात्र निर्विकल्प ज्ञानदर्शनचारित्रका ही--शुद्धरत्नत्रयका ही--स्वीकार करने हेतु "
नियम” के साथ “ सार” शब्द जोड़ा है ।] ३ – अनुत्तम = जिससे उत्तम कोई दूसरा नहीं है ऐसा; सर्वोत्तम; सर्वश्रेष्ठ।
है नियम मोक्ष-उपाय उसका फल परम निर्वाण है। इन तीनका ही भेद पूर्वक भिन्न भिन्न विधान है ।।४।।
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