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नियमसार
अत्रनियमशब्दस्य सारत्वप्रतिपादनद्वारेण स्वभावरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम्। य: सहजपरमपारिणामिकभावस्थितः स्वभावानन्तचतुष्टयात्मक: शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम: स नियमः। नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम्। ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलं बत्वेन निःशेषतोन्तर्मुखयोगशक्ते: सकाशात् निजपरमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति। दर्शनमपि भगवत्परमात्मसुखाभिलाषिणो जीवस्य शुद्धान्तस्तत्त्वविलासजन्मभूमिस्थाननिजशुद्धजीवास्तिकायसमुपजनितपरमश्रद्धानमेव भवति। चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव।
टीका:---यहाँ ( इस गाथामें), “नियम” शब्दको “ सार” शब्द क्यों लगाया है उसके प्रतिपादन द्वारा स्वभावरत्नत्रयका स्वरूप कहा है।
जो सहज 'परम पारिणामिक भावसे स्थित, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक 'शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम सो नियम (-कारणनियम) है। नियम (-कार्यनियम) अर्थात् निश्चयसे (निश्चित) जो करने योग्य-प्रयोजनस्वरूप-हो वह अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र। उन तीनोंमेंसे प्रत्येकका स्वरूप कहा जाता है :--- (१) परद्रव्यका अवलम्बन लिये बिना निःशेषरूपसे अन्तर्मुख योगशक्तिमेंसे उपादेय (-उपयोगको सम्पूर्णरूपसे अन्तर्मुख करके ग्रहण करनेयोग्य) ऐसा जो निज परमतत्त्वका परिज्ञान (-जानना) सो ज्ञान है। (२) भगवान परमात्माके सुखाभिलाषी जीवको शुद्ध अन्तःतत्त्वके 'विलासका जन्मभूमिस्थान जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है। ( ३) निश्चयज्ञानदर्शनात्मक कारणपरमात्मामें अविचल स्थिति (-निश्चलरूपसे लीन रहना) ही चारित्र है।
१ - इस परम पारिणामिक भावमें “पारिणामिक" शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप
परिणामको सूचित करनेके लिये नहीं है तथा पर्यायार्थिकनयका विषय नहीं है; यह परम पारिणामिक भाव तो उत्पादव्ययनिरपेक्ष एकरूप है और द्रव्यार्थिकनयका विषय है। [विशेषके लिये हिन्दी समयसार गाथा ३२०, पृष्ठ ४२३ पर श्री जयसेनाचार्यदेवकी
संस्कृत टीका और बृहद् द्रव्यसंगह गाथा १३ की टीका , ३४-३५ पृष्ठ देखो।] २ - इस शुद्धज्ञानचेतनापरिणाममें “परिणाम” शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप
परिणामको सूचित करनेके लिये नहीं है और पर्यायार्थिक नयका विषय है; यह
शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम तो उत्पादव्ययनिरपेक्ष एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है। ३ – यह नियम सो कारणनियम है, क्योंकि वह सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप कार्यनियमका
कारण है। [ कारणनियमके आश्रयसे कार्यनियम प्रगट होता है।] ४ - विलास = क्रीड़ा , आनन्द, मौज।
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