Book Title: Nandanvan Kalpataru 2003 00 SrNo 10
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ अहूँ वन्दनमर्चा मर्हन्तं भावतो हृदि ध्यातम् । सिद्धिं वितरति यत्तन् मत्रपदैः शान्तये स्तौमि ॥१॥ ॐ ह्रीँ अहूँ मत्रो, यस्योलसितो ददाति संसिद्धिम् । तरमै नमोऽस्तु शश्वद् यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥२॥ संसारे बहुधाऽसत् कर्मजनितविषमभावतोऽशान्तान् । शान्ति नयते निपुणं, नमो नमः शान्तिदेवाय ॥३॥ उज्ज्वलवर्णायोज्ज्वल वर्णेन सदैव सविधिसिद्धाय । प्रशमितविघ्नव्यूहो ___-तमाय सततं नमस्तरमै ॥४॥ तरमै नमोऽस्तु नित्यं, बाह्यान्तरदुष्टदोषशमनाय । अहमिति सिद्धवचसे, च शाकिनीनां प्रमथनाय ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 140