Book Title: Nammala
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Shambhunath Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 5
________________ प्रस्तावनी प्रस्तुत ग्रन्थ नाममाला कोश का एक सुन्दर और व्यवहारोपयोगी आवश्यक शम्बों से समृद्ध ग्रन्थ है। महाकषि धमञ्जय ने २०० श्लोकों में ही संस्कृत भाषा के प्रमुख शब्दों का चयन कर गागर में सागर भर दिया है। शब्द से भारदान्तर बनाने की इनको अपनी निराली पद्धति है। जैसे पृथिवी के नामों के आगे 'धर शब्द जोड़ देने से पर्वत के नाम, 'मनुष्य' के नामों के आगे 'पति' शब्द जोड़ देने से राजा के नाम, 'वृक्ष के नामों के आगे 'चर' शब्द जोड़ने पर बन्दर के नामों का बन जाना आदि । इसपर अमरकीति घिरमित भाष्य सर्वप्रथम प्रकाशित किया जा रहा है। सभाष्य में प्रत्येक शब्द की व्याकरणसिद्ध व्युत्पत्ति सूत्रनिर्देश पूर्वक बताई गई है। उणावि से सिद्ध हो या अन्य रोति से पर कोई भी शब्द नि[स्पत्ति नहीं रह पाया है। इन व्युत्पत्तियों की प्रामाणिकता के लिए महापुराण, पप्रमन्दि शास्त्र, यशस्सिलफ घम्यू, मोतिधाक्यामृत, द्विसन्धानकाव्य, बृहत्प्रतिक्रमण भाष्य, महाभारत, सूक्तिमुक्ताश्ली, पाब्बभेव, अनेकार्ययनिमञ्जरी, अमरसिंह भाष्य, आशाधर महाभिषेक, नीतिसार, शाश्वत, हमीनाममाला आदि ग्रन्थों तथा यशःकोति, अमरसिंह, आशापार, इन्द्रनचि, भोरस्वामी, पचनन्वि, श्रीभोज, हलायुध आदि ग्रन्थकारों को नाम निर्देशपूर्वक प्रमाणकोटि में उपस्थित किया है। अनेक व्युत्पत्तियां तो अमरकीर्ति की कल्पना के अच्छे उदाहरण है। यया--- "प्रियन्ते क्षुद्रजन्तवोऽस्य स्पर्शेनेति मरुत्' अर्थात् जिसके स्पर्श से क्षुद्र जन्तु मर जाय वह मरुत है। "न नन्दति भ्रातृजाया यस्यां सत्यां सा नमान्दा" जिसकी मौजूदगी में भौजाई स्युश न हो यह ननांवा-ननय है। "यज्ञानां पशुकारणलक्षणानामरि: यज्ञारिः" अर्थात् पशुयज्ञ का विरोधी महादेव हैं । आदि । इसके साथ ही एक अनेकार्थ निघण्टु भी मुद्रित किया गया है। इसके अन्त में निम्नलिखित पुष्पिका लेख है :--"इति महाकदिधनजयकृते निघण्टु समये भाग्दसंकीर्णे अनेकार्थप्ररूपणो द्वितीयपरिच्छेवः ।" इसकी एक मात्र अशुद्धतम प्रति पं० जुगलकिशोरजो मुख्तार अधिष्ठाता घोरसेषामन्विर से प्राप्त हुई थी। रचना शैली आदि से यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि यह उन्हीं धनञ्जयकी कृति है, पदापि पुष्पिका बाक्य में स्पष्ट रूपसे धनजय का उल्लेख है। इसके साथ ही एक अज्ञातकर्तक एकाक्षरी कोष का भी मुद्रण किया है। इसको हस्तलिखित प्रति भी धीरसेवा मन्दिर से ही प्राप्त हुई थी। प्रस्तुत संस्करण चमरफोतिकृत भाष्य की एकमात्र अशुद्ध प्रप्ति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन झालरापाटन से प्राप्त हुई थी। इसीके आधार से इसका सम्पादन पं० शम्भुनाथजी त्रिपाठी ने किया है। संस्करण में जो अनेक परिशिष्ट है ये सन पं० महादेवजी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य ने तैयार किये हैं। टिप्पणियाँ ५० भुनाथ जी त्रिपाठी ने बजे परिश्रम से लिखी है। मुझे यह लिखते हुए आनन्द होता है कि उनके सर्वतोमुखी अगाध पाण्डित्य का परिचय टिप्पणों में पद पद पर मिलता है।

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