Book Title: Nammala Author(s): Dhananjay Mahakavi, Shambhunath Tripathi Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 3
________________ "शब्दब्रह्मणि निष्णातः परब्रह्माधिगच्छति" ब्रह्मविन्दु० शब्दब्रह्म में पारंगत व्यक्ति परब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। यह सिद्धान्त इस बात को सूचना देता है कि साधक को पहिले शब्दशक्ति और उसकी मर्यादा तथा भाव का ज्ञान आवश्यक है। यवि उसे शब्द के वाच्यार्थ भावार्य और तात्पर्षि की प्रक्रिया का बोध नहीं है तो वह भटक सकता है। वस्तुतः शब्द भावों के होने का एक लंगा वाहन है। जब तक संकेतग्रहण न हो तब तक उसकी कोई उपयोगिता ही नहीं है। एक ही शब्द संकेतभेव से भिष्ठ भिन्न अयों का वाचक होता है। इसीलिए दर्शनशास्त्रों में एक पक्ष यह भी उपलब्ध होता है कि शब्द केवल वक्ता फी विवक्षा को सूचित करते है, पदार्थ के वाचक नहीं है। 'घट' शब्द का संकेत वक्ता ने जिस रूप में जिस श्रोता को ग्रहण करा दिया है उसी अभिप्राय का घोत्तन वह शब्ब उस श्रोता को करा देगा। शाम्ब विद्यमान अर्थ को भी कहता है और अविद्यमान की। एक खरविषाण भी सच है जिसका अखर वाच्य पदार्थ इस संसार में नहीं है और घट शव भी है जिसका वाच्य घड़ा मौजद है। अतः शम्ब के सम्बन्ध में यह निश्चय करना कि यह शब्द अर्थवाची है और यह अनर्थवामी-टेड़ी खीर है । फिर भी शाब्दिकों ने यह प्रयत्न किया है शब्द के सार्थकत्व और अनर्थकस्य का विवेक हो जाय। ___ उसका मुख्य उपाय है शषितग्रह या संकेतग्रहण । जिस अर्थ में जिस शब्द का संकेतग्रहण होता है वह उस अर्थ का वाचक हो जाता है। यह संकेत कब किसने ग्रहण कराया इसका निर्णय कठिन है। ईश्वर को संकेत ग्रहण कराने के लिए घसीटना श्रद्धा की वस्तु है। इसका इतना ही अर्थ है कि वृद्धपरम्परा से शब्ब संफेत का ग्रहण बराबर होता आया है और वह अनादि है। उसमें विशेष हेर फेर होकर भी सामान्यतया संकेत को परम्परा अनादि है । जब से यह जीव है तभी से शब्दसंकेत है । इस संकेतग्रहण के उपाय निम्न लिखित है: "गक्तिग्रहं बयाकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । बावग्रस्त शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सानिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः 1३' अर्थात्----ध्याकरण, उपमान, कोश, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्यशेष, विवरण और प्रसिद्ध शब्दके सानिध्य से संकेत ग्रहण होता है। इनमें व्याकरण से यौगिक शब्दों का प्रयुत्पत्ति द्वारा संफेत प्रहण . हो भी जाय पर रूद और योगरूढ़ शब्दों का संकेत ग्रहण व्याकरण से नहीं हो सकता। अन्ततः कोवा ही एक ऐसा उपाय बचता है जिससे सभी प्रकार के शादों का संकेत-ग्रहण हो जाता है। कोश अर्थात् खजाना या भंडार। व्याकरण से सिद्ध या वृद्धपरम्परा से प्रसिद्ध कैसे भी यौगिक रूद या योगाढ़ आदि शब्दों का अनेकार्य के साथ संग्रह कोश में होता है। भाषा वही समुद्ध और जीवित समझो जाती है जिसका शब भंडार पर्याप्त हो और जिसमें व्यबहार और परमार्य के लिए उपयोगी सभी शब्द विधमान हों। जिसमें अन्य भाषाओं के पा विदेशी शम्बों के पचाने की या उन्हें स्व-स्वरूप करने की सामर्थ्य हो। इस दृष्टि से संस्कृत भाश उतनी समृद्ध नहीं बन सफी। इसका कारण यह रहा है कि इस भाषा पर एफ वर्ग का प्रभुत्व रहा और उसने इसकी पाचन शक्ति को धर्म अधर्म के कल्पित बन्धन से जकड़ दिया था। उस वर्ग ने उस युग में प्रचलित अपभ्रंश और प्राकृत बोलियों का जो उस समय की जनबोलियां थी उच्चारण करना पाप गोषित किया था। फिर भी संस्कृत की जो प्रकृति प्रत्यय उपसर्ग आदि के योग से शब्दोत्पादन शक्ति योPage Navigation
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