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परम्परा से हमारे चरित्रनायक रत्नचूड़ नरेश को भी उस प्रभाविक मूर्ति की पूजा का सौभाग्य मिल गया । रत्नचूड़ का २४ चौबीस वर्ष की वय में ही राज्याभिषेक होगया और बाद १६ वर्ष तक निष्कंटक राज्य कर जनता को सब प्रकार से - आराम दिया । एक दिन आप अपने कुटुम्ब तथा सुहृद्वर्ग के साथ एक विमान पर सवार हो यात्रार्थ निकल पड़े और क्रमशः नाना स्थानों की यात्रा करते हुए अष्टम नन्दीश्वर द्वीप में पहुँचे । वहाँ के ५२ भव्य जिनालयों की जब आपने यात्रा की तो आप एक दम संसार से विमुख हो मुक्ति के इच्छुक बन गए । और जब वहाँ से लौट कर वापिस घर आ रहे थे तो उस समय प्रभु पार्श्वनाथ के पञ्चम पट्टधर आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि की मार्ग में आप से भेंट हुई और श्राचार्य श्री का वैराग्य मय उपदेश सुना। फिर तो क्या देर थी- झट से ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी सौंप आपने ५०० मुमुक्षुत्रों के साथ सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा को धारण कर १२ वर्ष तक गुरुदेव के पास विनय पूर्वक ज्ञानाऽभ्यास कर आप चौदह पूर्व के ज्ञाता बन गए । आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि ने अपनी अन्तिमावस्था में हजारों साधुओं में से मुनि रत्नचूड़ को सर्वतोभावेन योग्य समझ कर वीर निर्वाण के ५२ वे वर्ष आचार्य पदवी से विभूषित कर संघ का नायक बना दिया और आपका नाम रत्नप्रभ सूरि रक्खा गया । आप सादे और सरल जीवी होने पर भी -बड़े ही प्रभावशाली और अहिंसा धर्म के कट्टर प्रचारक थे । आपने बड़ी २ कठिनाइयों का सामना कर अनेक प्रान्तों में विहार कर जैन धर्म का जोरों से प्रचार बढ़ाया और लाखो
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