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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
चाहता है, राग-द्वेषसे छुटकारा प्राप्त करना चाहता है एव अपने हृदयको शुद्ध, सवल और सरस बनाना चाहता है, उसे अपने सामने कोई आदर्श अवश्य रखना होगा तथा इस आदर्शको प्रतिपादित करनेवाले किसी मगलवाक्यका मनन भी करना पडेगा । यहाँ आदर्श रखनेका यह अर्थ कदापि नही है कि अपनेको हीन तथा आदर्शको उच्च समझकर दास्यदासक भाव स्थापित किया जाये अथवा अन्य किसी रागात्मक सम्बन्धकी स्थापना कर अपनेको रागी-द्वेषी वनाया जाये, बल्कि तात्पर्य यह है कि शुद्ध और उच्च आदर्शको स्थापित कर अपने को भी उन्ही के समान बनाया जाये । राग द्वेष, काम-क्रोध आदि दुर्बलताओपर मगलवाक्यमे वरिगत शुद्ध आत्माओके समान विजय प्राप्त की जाये। आत्मोन्नति के लिए आवश्यक है आराधना योग्य परमशान्त, सौम्य, भव्य और वीतरागी आत्माओं का चिन्तन एव मनन करना तथा इन आत्माओके नाम मोर गुणोको बतलानेवाले वाक्योका स्मरण, पठन एव चिन्तन करना । ससारके विकारोसे ग्रस्त व्यक्ति आदर्श आत्माओं के गुणोंके स्तवन, चिन्तन और मनन-द्वारा अपने जीवनपर विचार करता है । जिस प्रकार उन शुद्ध और निर्मल आत्माओंने राग, द्वेष आदि प्रवृत्तियोपर विजय प्राप्त कर लिया है तथा नवीन कर्मोंके आसत्रको अवरुद्ध कर सचित कर्मोंका क्षय - विनाश कर शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लिया है, उसी प्रकार आदर्श शुद्ध आत्माओके स्मरण, ध्यान और मननसे साधक भी निर्मल बन सकता है ।
णमोकार मन्त्रमे प्रतिपादित आत्माओकी शरण जानेसे तात्पर्य उन्ही के समान शुद्ध स्वरूपकी प्राप्तिसे है । साधक किसी आलम्बनको पाकर ऊँचा घट जाना साधना की उन्नत अवस्थाको प्राप्त कर लेना चाहता है । यह आलम्बन कमजोर नही है, बल्कि विश्वको समस्त आत्माओोसे उन्नत परमात्मारूप है । इनके निकट पहुँचकर साधक उसी प्रकार शुद्ध हो जाता है, जिस प्रकार पारसमणिका सयोग पाकर लोहा स्वर्ण बन जाता है । लोहेको स्वर्ण बननेके लिए कुछ विशेष प्रयास नही करना पडता, बल्कि
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