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५६ मगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
यदि कोई यह कहे कि इस प्रकार मादिमे अरिहन्तोको नमस्क करना तो पक्षपात है ? इसपर आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षप दोषोत्पादक नही है। किन्तु शुभ पक्षमे रहनेसे वह कल्याणका ही कार है। तथा द्वैतको गौण करके अद्वैतकी प्रधानतासे किये गये नमस्का द्वैतमूलक पक्षपात वन भी तो नहीं सकता है। अत. उपकारीके खा अरिहन्त भगवान्को सबसे पहले नमस्कार किया है, पश्चात् सि परमेष्ठीको ।
अरिहन्त और सिद्धमे नमस्कारका उक्त क्रम मान लेनेपर, आचा उपाध्याय और सर्वसाधुके नमस्कारमे उस क्रमका निर्वाह क्यो नही कि गया है ? यहाँ भी सबसे पहले साधु परमेष्ठीको नमस्कार किया जा पश्चात् उपाध्याय और आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार होना चाहिए। पर ऐसा पदक्रम नहीं रखा गया है।
उपर्युक्त आशकापर विचार करनेसे ऐमा प्रतीत होता है कि महामन्त्रमे परमेष्ठियोको रत्नप्रय गुणकी पूर्णता और अपूर्णताके कान दो भागोमे विभक्त किया है। प्रथम विभागमे अर्हन्त और सिद्ध द्वितीय विभागमे आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं। प्रथम विभाग परमेष्ठियोमे रत्नत्रयगुणकी न्यूनतावाले परमेष्ठीको पहले और रत्नत्र गुणको पूर्णतावाले परमेष्ठीको पश्चात् रखा गया है। इस क्रमानुस अरिहन्तको पहले और सिद्धको बादमे पठित किया है। दूसरे विभाग परमेष्ठियोंमे भी यही क्रम है। आचार्य और उपाध्यायको अपेक्षा मुनि स्थान ऊँचा है, क्योकि गुणस्थान-आरोहण मुनिपदसे ही होता है, आच और उपाध्याय पदसे नही। और यही कारण है कि अन्तिम समय आचार्य और उपाध्यायोको अपना-अपना पद छोडकर मुनिपद धार करना पडता है। मुक्ति भी मुनिपदसे ही होती है तथा रत्नत्रयको पूर्ण इसो पदमे सम्भव है। अतः दोनो विभागोमे उन्नत मात्माओको पश्च पठित किया गया है।