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१७२ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन से रुक जाती है, इच्छाओपर नियन्त्रण हो जाता है तथा सारे अनर्थोकी । जड चित्तकी चंचलता और उसका सतत सस्कार युक्त रहना, इस महा. मन्त्रके ध्यानसे रुक जाता है। अहकारवेष्टित बुद्धिके ऊपर अधिकार प्राप्त करनेमें इससे बढकर अन्य कोई साधन नहीं है। अतएव संयम और तपकी सिद्धि इस मन्त्रकी आराधना द्वारा ही सम्भव है।
दान देना गृहस्थका नित्य प्रतिका कर्तव्य है। दान देनेके प्रारम्भमे भी णमोकार मन्त्रका स्मरण किया जाता है। इस मन्त्रका उच्चारण किये बिना कोई भी श्रावक दानकी क्रिया सम्पन्न कर ही नहीं सकता है। दान देनेका ध्येय भी त्यागवृत्ति-द्वारा अपनी आत्माको निर्मल करना और मोहको दूर करना है । इस मन्त्रकी आराधना-द्वारा राग-मोह दूर होते हैं और आत्मामे रत्तत्रयका विकास होता है। अतएव दैनिक षट्कर्मोमे णमोकार मन्त्र अधिक सहायक है।
श्रावककी दैनिक क्रियाओका दर्शन करते हुए बताया गया है कि प्रातःकाल नित्यक्रियामोसे निवृत्त होकर जिनमन्दिरमे जाकर भगवान के सामने णमोकार मन्त्रका स्मरण करना चाहिए। दर्शन-स्तोत्रादि पढनेके अनन्तर ईपिथशुद्धि करना आवश्यक है। इसके पश्चात् प्रतिक्रमण करते हुए कहना चाहिए कि 'हे प्रभो । मेरे चलनेमे जो कुछ जीवोकी हिंसा की हो, उसके लिए मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। मन, वचन, कायको वशमे न रखनेसे, बहुत चलनेसे, इधर-उधर फिरनेसे, आने-जानेसे, द्वीन्द्रियादिक प्राणियो एव हरित कायपर पैर रखनेसे, मल-मूत्र, थूक आदिका उत्क्षेपण करनेसे, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय या पचेन्द्रिय अपने स्थानपर रोके गये हो, तो मैं उसका प्रायश्चित्त करता हूँ। उन दोषोकी शुद्धिके लिए अरहन्तोंको नमस्कार करता हूँ और ऐसे पापकर्म तथा दुष्टाचारका त्याग करता हूँ।' "णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो भाइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सवसाहूणं" इस मन्त्रका नौ बार जाप करप्रायश्चित्त विधिपूर्वक किया जाता है। प्रायश्चित्तविधिमे इस मन्त्रकी उप