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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन तात्पर्य यह है कि जो मुनि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी अधिकताके कारण प्रधानपदको प्राप्त कर सघके नायक बनते हैं तथा मुख्यरूपसे तो निर्विकल्पस्वरूपाचरण चारित्रमे ही मगन रहते हैं; किन्तु कभी-कभी धर्मपिपासु जीवोको रागाशका उदय होनेके कारण करुणावुद्धिमे उपदेश भी देते हैं । दीक्षा लेनेवालोको दीक्षा देते हैं तथा अपने दोष निवेदन करने, वालोको प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं ।
"परमागमके परिपूर्ण अभ्यास और अनुभवसे जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीतिसे छह आवश्यकोका पालन करते हैं, जो मेरु पर्वतके समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंहके समान निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश, कुल और जातिसे शुद्ध हैं, सौम्य मूर्ति हैं, अन्तरग और बहिरग परिग्रहसे रहित हैं, आकाशके समान निर्लेप है, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं । ये दीक्षा और प्रायश्चित्त देते है, परमागम अर्थके पूर्ण-ज्ञाता और अपने मूल. गुणोमे निष्ठ रहते हैं इस रत्नत्रयके धारी आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार किया है।
'णमो उवज्झायाण'-चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः
१ श्रा मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते सेन्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकाडक्षिभिः श्त्याचार्या. । उक्त च-"सुत्तविक लख्याजुतो गच्छस्स मेढिभूलो य। गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थ वाएइ आइरिश्रो ।' अथवा आचारो शानाचारादिः पन्चधा। आमर्यादया वा चारो विहारः आचारस्तत्र साधवः स्वयं करणात् प्रभापणत् प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः। श्राह् च पचविहं पायार आयरमाणा तहा पयासता । आयार दमता आयरिया तेण वुच्चति ॥ अथवा मा ईपद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः। चारा हेरिका ये ते आचारा चारकल्पा इत्यर्थः। युक्तायुक्तविमागनिरूपणनिपुणा विनेयाः अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्या.। नमस्यता चैपामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् । भग० १, १, १ टोका। १२. धवला टीका, प्र० पु०, पृ० ४६, मूलाचार आवश्यक अ० श्लोक 11)