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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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वज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमाके समान अभेद्य आकारसे युक्त है, जो पुरुषाकार होनेपर भी गुणोंसे पुरुषके समान नही है, क्योकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोको भिन्न भिन्न देशोमे जानता है, परन्तु जो प्रत्येक देशमे सब विषयो को जानते हैं वे सिद्ध हैं' । आत्माका वास्तविक स्वरूप इस सिद्ध पर्याय हो प्रकट होता है, सिद्ध ही पूर्ण स्वतन्त्र और शुद्ध हैं । इस प्रकार पूर्ण शुद्ध कृतकृत्य, अचल, अनन्त सुख - ज्ञानमय और स्वतन्त्र सिद्ध आत्माओको 'णमो सिद्धाण' पदमे नमस्कार किया गया है ।
'णमो आइरियाणं' - णमो' नमस्कारः पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः । चतुर्दशविद्यास्थानपारगा. एकादशाङ्गधरा । भाचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्वसम्यपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्वल. क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहिः क्षिप्त मलः सप्तमय विप्रमुक्त आचार्यः ।
णमो नमस्कार.", केभ्यः ? भाचार्यैभ्यः, स्वयं पन्वविधाचारवन्तोऽन्येषामपि तत्प्रकाशकत्वात् भाचारे साधवः आचार्यास्तेभ्य इति ।
अर्थ — आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार है । जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारोका स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओंसे आचरण कराते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चौदह विद्यास्थानोंके पारंगत हों, ग्यारह अगके धारी हो अथवा आचारागमाश्रके घारी हो अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमयमे पारगत हो, मेरुके ममान निश्चल हो, पृथ्वीके समान सहनशील हो, जिन्होने समुद्रके समान मल अर्थात् दोषों को बाहर फेंक दिया हो और जो सात प्रकारके भयसे रहित हों, उन्हें आचार्य कहते हैं ।
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आचार्य परमेष्ठीके ३६ मूल गुण होते हैं - १२ तप, १० धर्म, आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति । इन ३६ मूल गुणोका आचार्यं परमेष्ठी सावधानीपूर्वक पालन करते हैं ।
१ धवना टोका, प्रथम पुस्तक, पृ० ४८ । २. सप्तस्मरणानि, पृ० ३ ।