Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 18
________________ 42Fs का स्वरूप इस प्रकार है। जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष--इन सात तत्वों का, जिनेन्द्र भगवान का, उनके आगम का एवं उत्तम तप के भंडार गुरुओं का जो यथार्थ रूप से श्रद्धान करता है, उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन माना है। इस सम्यग्दर्शन के निःशंकितादि आठ अंग हैं तथा उनका स्वरूप यह है--श्री जिनेंद्र देव के वचन में किसी प्रकार की शंका न करना निःशंकित अंग है । भोगों के अन्दर आकांक्षा न रखना निःकांक्षित अंग है । मुनि आदि के शरीर में रोगादिक के कारण दुर्गन्धि उत्पन्न हो जाने पर भी किसी प्रकार की घृणा न करना निर्विचिकित्सित अंग है। || लोकाचार के अन्दर जो भी मिथ्यादृष्टियों के साथ मूढ़ता का व्यवहार है, उसका न होना अमूढ़दृष्टि नाम का अंग है। असमर्थ अज्ञानी मनुष्य भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित सन्मार्ग में यदि किसी प्रकार के दोष लगावें तो उन दोषों को आच्छादित कर देना (ढंक देना), उपगूहन अंग है । किसी कारणवश कोई धर्मात्मा धर्म से चलायमान हो जाए, तो उन्हें मृदुवाणी से समझा-बुझा कर एवं अन्य किसी उपाय से पुनः ज्यों का त्यों धर्म में स्थिर कर देना स्थितीकरण अंग है । जैन-धर्म के धारकों में अत्यन्त प्रेम का रखना वात्सल्य अंग है तथा किसी भी उत्तम उपाय से भगवान जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य प्रगट करना आठवाँ अंग प्रभावना कहा जाता है ।।५०-५४|| भयवान समन्तभद्राचार्य ने इन अंगों का स्वरूप 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में इस प्रकार कहा है-- 'भगवान जिनेन्द्र ने वस्तु का जो स्वरूप कहा है, वह वही है तथा उसी प्रकार का है, अन्य नहीं है तथा न अन्य प्रकार का है, इस प्रकार निश्चल तीक्ष्ण खड्ग की धारा के सदृश जो सन्मार्ग (श्रेष्ठ मार्ग) में संशय रहित निश्चल रूप से रूचि का होना है, वह सम्यग्दर्शन का पहिला अंग निःशंकित नाम का है। कर्मों की क्षा आदि अवस्थाओं के आधीन होने के कारण जो सुख कर्माधीन है, विनाशीक है तथा जिसका उदय सदा दुःख से | मिश्रित है, ऐसे पाप के कारण सुख में जो किसी प्रकार के विश्वास का न रखना है अर्थात् ऐहिक विषयवासना जनित सुख में जो किसी प्रकार लालसा नहीं रखना है, वह दूसरा निःकांक्षित अंग है । रक्त, माँस आदि निन्दित धातुउपधातुओं का स्थान होने से स्वभाव से अपवित्र फिर भी रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) से पवित्र अर्थात् स्वभाव से निन्दित पर सम्यग्दर्शन आदि से पवित्र मुनियों के शरीर में किसी प्रकार की घृणा न कर जो उनके 44444 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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