Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 101
________________ ॐ मूल भाग में कीड़े हों, ऐसे फलों को तथा निन्द्य पुष्प आदि वस्तुओं को भी विष के समान अहितकारी जान कर त्यांग देना चाहिये ।।३६-४१।। पूर्व दिशा में सौ कोस तक जाऊँगा या उत्तर दिशा में मैं पचास कोस आदि तक जाऊँगा, ऐसा परिमाण करना तो दिग्व्रत का विषय है; परन्तु इसी परिमाण में से क्षेत्र की मर्यादा बाँध कर जो प्रतिदिन यह परिमाण कर लेना है कि आज मैं अमुक घर तक जाऊँगा अथवा मन्दिर तक जाऊँगा, मन्दिर से बाहर नहीं जाऊँगा, वह 'देशावकाशिक' नाम का शिक्षाव्रत कहलाता है। यह 'देशावकाशिक' शिक्षाव्रत विशेष रूप से जीव की हिंसा का निरोधक होने से निर्मलता का कारण है; इसलिए मोक्ष को प्राप्त करानेवाला माना जाता है ।।४२।। सामायिक का विधान तीनों काल माना जाता है, जो महानुभाव मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से मन-वचन-काय की शुद्धता से तीनों काल सामायिक करते हैं, उनके 'सामायिक' नाम का दूसरा शिक्षाव्रत होता है ।।४३।। प्रत्येक मास की अष्टमी-चतुर्दशी के दिन किसी प्रकार के आरम्भ को न कर नियम से उपवास करना है, वह 'प्रोषधोपवास' नाम का तीसरा शिक्षाव्रत है ।।४४।। उत्तम पात्रों आदि को दान देने के लिए जो प्रतिदिन अपने घर का द्वार देखते हैं, द्वाराप्रेक्षण करते हैं, तथा पात्रों के प्राप्त होने पर उन्हें आहार, औषधि आदि चारों प्रकार का दान करते हैं; वे महानुभाव ‘अतिथिसंविभाग' नाम के चौथे शिक्षाव्रत के धारक हैं । जिसकी कोई निश्चित तिथि न हो, वह 'अतिथि कहलाता है एवं 'संविभाग' का अर्थ निर्दोष वस्तु का देना है अर्थात् मुनि आदि अतिथियों के लिए जो आहार, औषधि आदि का प्रदान करना है, वह 'अतिथिसंविभाग' का अन्वर्थ है ।।४५।। 'ग्रन्थकार' फल प्रदर्शन करते हुए कहते हैं कि जो महानुभाव उपर्युक्त व्रतों का अतिचार रहित पालन करते हैं, उन्हें सोलहवें स्वर्ग के दिव्य सुख भोगने के लिए प्राप्त होते हैं ।।४६।। व्रतों का पालन करनेवालों के लिए अन्त समय में सल्लेखना का भी विधान है। सल्लेखना का लक्षण यह बतलाया गया है कि तीव्र उपसर्ग आने पर या दुर्भिक्ष उपस्थित होने पर या अत्यन्त वृद्धावस्था होने पर अथवा तीव्र रोग के उपस्थित होने पर जिसका कि किसी प्रकार से प्रतीकार न हो सके--मृत्यु का ही समय आकर उपस्थित हो जाए, उस समय किसी कषाय आदि से प्रेरित न होकर धर्म के लिए जो सन्यासपूर्वक शरीर का त्याग करना है, वह 'सल्लेखना व्रत' है । जो महानुभाव बारह व्रतों के पालन करनेवाले हैं, उन्हें उपर्युक्त व्रतों का यावज्जीवन पालन कर अन्त में मृत्यु के समय उन समस्त व्रतों के पवित्र फल की प्राप्ति के लिए शुद्ध भावों से सल्लेखना करनी चाहिए 44 944 Jain Education international For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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