Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 99
________________ अनुमोदना से जो दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवों का घात नहीं करना है, वह पहिला अहिंसा अणुव्रत कहा जाता है ।।३०।। यह अहिंसा समस्त व्रतों की जननी है अर्थात् जबतक हृदय में अहिंसा की सत्ता नहीं है, तबतक किसी भी व्रत का पालन नहीं हो सकता । यह समस्त गुणों की खान है। अहिंसा का पालन करने से ही आत्मा में समस्त गुणों की प्राप्ति होती है एवं वह धर्मरूपी वृक्षों को उत्पन्न करनेवाली उत्तम भूमि है--अहिंसा के पालन से ही वास्तविक धर्म की उत्पत्ति होती है ।।३१।। मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना से दूसरे को पीड़ा पहुँचानेवाले स्थूल झूठ का न बोलना सत्य अणुव्रत कहा जाता है, जो महानुभाव सत्य अणुव्रत के पालन करनेवाले हैं, उन्हें चाहिए कि जब बोलें, उस समय सत्य ही बोलें, हितकारी बोलें-बहुत थोड़ा परिमित बोलें, पक्षपात् रहित निर्दोष बोलें, “मारो-बाँधो" इत्यादि शब्द कभी न बोलें एवं बहुत मीठा तथा धर्म के स्वरूप को सूचित करनेवाला वचन बोलें ।।३२-३३।। जो सोना-चाँदी आदि वस्तुयें नष्ट हों अर्थात् जमीन आदि के अन्दर गड़ी आदि हों या मार्ग आदि में गिरी पड़ी हों या किसी कारणवश भूली हुई हों, उन्हें मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से जो ग्रहण नहीं करना है, वह तीसरा 'अचौर्य' नाम का अणुव्रत है । पर स्त्रियों को जो माता आदि के समान समझता है अर्थात् अपने से छोटी स्त्री में पुत्री के भाव, बराबर वाली में बहिन सरीखे भाव एवं बड़ी में माता सरीखे भाव होना है एवं उन्हें देख कर जरा भी राग-भाव का न होना है, वह 'ब्रह्मचर्य (स्वदारासन्तोष) नाम का अणुव्रत है ।।३।। तथा सन्तोष को हृदय में धारण कर एवं लोभ का सर्वथा त्याग कर ऊपर जो क्षेत्र-वस्तु आदि दश प्रकार के परिग्रह कहे गये हैं, उनका परिमाण कर लेना है अर्थात् हम अमुक वस्तु इनती ही रक्खेंगे; इस प्रकार की मर्यादा बाँध लेना है, वह पाँचवाँ 'परिग्रह परिमाण' नाम का अणुद्रत है । ।।३६।। इन पाँचों अणुव्रतों के पालन करने का फल यह है कि पंचाणुव्रती महानुभाव पवित्र पुण्य उपार्जन कर सोलहवें स्वर्ग तक के सुखों को भोगते हैं एवं पाप के आगमन को रोकते हैं ।।३७।। दिशाओं की मर्यादा कर उनसे आगे न जाना दिग्विरति कही जाती है। जीवों के घात आदि न हो, इस पवित्र अभिलाषा से जो दिशाओं के अन्दर यह परिमाण कर लेना कि अमुक दिशा में मैं इतने कोस तक जाऊँगा, उससे आगे न जाऊँगा. 'दिग्विरति' नाम का गणव्रत है ।।३।। जिन-जिन कार्यों से व्यर्थ ही पाप का आस्रव होता हो, 44640 से ८८ Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org

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