Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 100
________________ 949 को उन कार्यों का जहाँ पर त्याग हो एवं अपध्यान-खोटेध्यान आदि का भी त्याग हो, वह अनर्थदण्ड व्रत है । इसका विशेष तात्पर्य यह है-- बिना प्रयोजन ही जीवों को दण्ड देना, अनर्थदण्ड कहा जाता है एवं उसका त्याग कर देना, 'अनर्थ दण्डव्रत नाम का गुणव्रत है। अनर्थदण्ड के १.पापोपदेश २.हिंसादान ३.अपध्यान ४.दुःश्रुति एवं ५.प्रमादचर्या--ये पाँच भेद हैं । मारना, बाँधना, बहुत बोझा लादना आदि रूप से तिर्यन्चों को क्लेश देनेवाला उपदेश देना, व्यापार का उपदेश देना, जिस कार्य के करने में षट काय के जीवों की हिंसा होती हो, ऐसा हिंसा परिपूर्ण उपदेश देना या महल आदि || का बनवाना रूप आरम्भ का उपदेश देना एवं छल, कपट, धोखेबाजी का उपदेश देना; इस प्रकार पाप का कारण | उपदेश देना 'पापोपदेश' नाम का अनर्थदण्ड है। फरसा, तलवार, फावड़ा, अग्नि, आयुध तथा बेड़ी आदि हिंसा उपकरणों को दूसरे को प्रदान करना, 'हिंसादान' नाम का अनर्थदण्ड है। तीव्र द्वेष या तीव्र राग से परायी स्त्री-पुत्र आदि के विषय में यह चिन्तवन करना कि यह बँध जाए या मर जाए या छिद जाए आदि तो अच्छा हो, ऐसे खोटे चिन्तवन का नाम 'अपध्यान' नाम का अनर्थदण्ड है। जो शास्त्र, असि, मसि, कृषि आदि आरम्भ, धन-धान्य आदिक परिग्रह, रौद्र कामों का साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, अहंकार तथा काम के विकारों का उत्पन्न करनेवाले हों, ऐसे खोटे शास्त्रों का सुनना-विचारना 'दुःश्रुति' नाम का अनर्थदण्ड है । पृथ्वी खोदना, जल बहाना, अग्नि का जलाना तथा पवन || का फूंकना--इस प्रकार व्यर्थ आरम्भ करना, बिना कारण वनस्पति का छेदना, स्वयं चलना तथा दूसरों को चलाना, यह सब 'प्रमादचर्या' नाम का अनर्थदण्ड है। इन पाँचों प्रकार के अनर्थदण्डों का त्यागना अनर्थदण्डव्रत कहा जाता __आगे तांबूल, अन्न आदि भोगरूप पदार्थों का तथा स्त्री, भूषण, वस्त्र आदि उपभोग स्वरूप पदार्थों का जो प्रमाण करना है, वह 'भोगोपभोग परिमाण' नाम का गुणव्रत है। जो वस्तु एक बार भोग कर पुनः भोगने में न आवे, वह || ८९ भोग तथा जो बारम्बार भोगने में आवे, वह उपभोग स्वरूप कहलाती है। पान, इलायची, भोजन आदि पदार्थ एक ही बार भोगने में आते हैं; इसलिए ये भोगस्वरूप हैं एवं स्त्री-भूषण आदि पदार्थ बारम्बार भोगने में आते हैं; इसलिए नये उपभोग स्वरूप हैं । इन तीनों दिग्व्रतों के साथ-साथ अनन्त जीवों से व्याप्त अदरख आदि कन्दमूलों को; जिनके Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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