Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 102
________________ ।।४७।। इस प्रकार जो महानुभाव इन बारह व्रतों का अतिचाररहित विशुद्ध भावों से पालन करता है, उनके दूसरी प्रतिमा होती है, जो कि स्वर्गरूपी लक्ष्मी की सखी स्वरूप मानी गई ।।४।। तीसरी सामायिक प्रतिमा है, जो पुरुष प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त इस प्रकार बारह आवर्तो को कर एवं चारों दिशाओं में चार प्रणाम कर स्थित होनेवाला हो, यथाजात रूप का धारक हो, दोनों प्रकार के आसनों से युक्त हो, मन-वचन-काय को शुद्ध रखनेवाला हो एवं तीनों काल सामायिक करनेवाला हो, वह सामायिक प्रतिमा का धारक है । चौथी प्रतिमा का नाम 'सत्प्रोषधोपवास' है । जो महानुभाव प्रत्येक मास की अष्टमी एवं चतुर्दशी को शक्ति को न छिपा कर प्रोषधों का पालन करनेवाला है, वह कर्मों को नाश करनेवाली 'सत्प्रोषधोपवास' प्रतिमा का क है । पाँचवी प्रतिमा का नाम 'सचित्तविरत' है, जो महानुभाव इस पाँचवी प्रतिमा का पालन करना चाहें, उन्हें मन-वचन एवं काय से सचित्त पत्र, बीज तथा फल आदि का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए एवं उन्हें अप्रासुक जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिए ।।४६-५०।। छठी प्रतिमा 'रात्रिभुक्तिविरत' है । जो महानुभाव रात्रिभुक्ति विरत प्रतिमा के धारक हैं उन्हें दया-धर्म की प्राप्ति के लिए जिस प्रकार अखाद्य--नहीं खाने योग्य वस्तु का सर्वथा त्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार रात्रि में अन्न, पान, खाद्य एवं स्वाद्य--इन चारों प्रकारों के आहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । अन्न से यहाँ पर भोजन लिया गया है। पान से दूध, शबेत आदि पीने योग्य पदार्थ का ग्रहण करना है । खाद्य से खाने योग्य पदार्थ पेड़ा, लाडू आदि लिए हैं एवं स्वाद्य से इलायची, पान, सुपारी आदि पदार्थों का ग्रहण है।।५१।। इस महानुभाव पहिली प्रतिमा से छठी प्रतिमा पर्यंत इन प्रतिमाओं का निर्दोष रूप से पालन करनेवाला है, सम्यग्दर्शन से वह महानुभाव जघन्य श्रावक माना गया है ।। ५२।। सातवीं 'ब्रह्मचर्य' प्रतिमा है। जो महानुभाव अपनी-पराई समस्त स्त्रियों को अपनी माता के समान मानता है एवं उनसे रन्चमात्र भी राग का स्पर्श नहीं रखता, वह महानुभाव 'ब्रह्मचर्य' प्रतिमा का पालन करनेवाला ब्रह्मचारी है ।।५३।। घर का समस्त आरम्भ अनेक प्रकार के पापों का कारण है; अर्थात् सेवा, खेती, व्यापार आदि कोई भी आरम्भ किया जाए, नियम से उससे पापों की उत्पत्ति होती है । 3 इस प्रकार पाप के कारण स्वरूप घर के आरम्भ का मन-वचन एवं काय की शुद्धतापूर्वक त्याग करनेवाले हैं, उन || महानुभाव श्रावक के 'आरम्भ-त्याग' नामक आठवीं प्रतिमा होती है ।।५४।। नवमी प्रतिमा का नाम 'परिचित-परिग्रह-त्याग' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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