Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 112
________________ सम्यक्त्व आदि आठों गुणों को प्राप्त कर तथा सिद्ध होकर अनन्तकाल पर्यन्त वहाँ पर वे विराज गए एवं उस अलौकिक सुख का अनुभव करने लगे कि जो कि अन्त-रहित अनन्त है, उपमा-रहित है, दिव्य है, समस्त प्रकार के क्लेशों से रहित है, स्वाधीन है, विनाश-रहित अविनाशी है, उत्कृष्ट है, इन्द्रियों से जायमान नहीं है, समस्त प्रकार की बाधाओं से रहित है तथा महान है ।।१४७-१४६।। जिस समय भगवान मुक्त हो गए, देवों को ज्ञात हो गया। भगवान की भक्ति के करने में सदा दत्तचित्त वे समस्त देव अपने-अपने इन्द्रों तथा परिवार के देवों के साथ शीघ्र ही उनकी निर्वाणभूमि सम्मेदाचल पर आ गए । श्रीजिनेन्द्र || म भगवान उसी शरीर से मोक्ष गए थे; इसलिए उनका वह शरीर साक्षात् मोक्ष का कारण होने से परम पवित्र था । | अतः देवों ने बड़ी भक्ति से उनका शरीर अनेक प्रकार के रत्नों से शोभायमान पालकी में विराजमान कर दिया । महासुगन्धित उत्तमोत्तम द्रव्यों से उसे पूजा एवं अन्त में देवों ने शीश झुका कर बड़े विनय से उसे नमस्कार किया ।। १४६-१५१।। अग्निकुमार जाति के भवनवासी देवों के मुकुट से जायमान अग्नि से भगवान का शरीर दूसरी पर्याय को प्राप्त हो गया; अर्थात् भस्म हो गया। जिस समय वह दूसरी पर्याय को प्राप्त हो रहा था, उस समय उसकी उत्कट सुगन्धि से समस्त दिशायें सुगन्धित हो गई थीं। उनके शरीर की जो भस्म हुई थी, देवों ने यह कहकर कि “जिस प्रकार यह अवस्था श्रीमल्लिनाथ भगवान की हुई है, उसी प्रकार हमारी भी हो"--उसे श्रीमल्लिनाथ भगवान के स्वरूप की प्राप्ति की अभिलाषा से अपने-अपने मस्तक तथा समस्त शरीर से लगा लिया । पुनः समस्त इन्द्रों ने मिल कर 'आनन्द' नामक नाटक किया, अन्त में अपना समस्त कार्य समाप्त कर वे श्री जिनेन्द्र भगवान के गुणों की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानों पर चले गए ।।। १५२-१५४।। जिन श्रीमल्लिनाथ भगवान ने पुण्य के तीव्र विपाक से पहिले तो मनुष्य एवं देवगति के अन्दर होनेवाले उत्तम सुख का सानन्द भोग किया; उसके बाद तीन लोक के इन्द्रों द्वारा वन्दनीय परम पावन तीर्थंकर पदवी प्राप्त की; पश्चात् समस्त चारित्र को धारण कर ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों को नष्टकर मोक्ष पद पाया; वे श्रीमल्लिनाथ भगवान हमारी रक्षा करें ।।१५५।। जो श्रीमल्लिनाथ भगवान पहिले तो 'वैश्रवण' नाम के राजा हुए, वहाँ पर 'रत्नत्रय' नाम का पवित्र व्रत आचरण कर पीछे संयम ले उत्तम तपों की कृपा से दिव्य पाँच अनुत्तर विमानों में से चौथे 'अपराजित' नाम के JFFFF في 4 و Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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