Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ bPF प्रतिपादन किया ।।१६।। अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक के भेद से लोक तीन प्रकार का है। श्री जिनेन्द्र भगवान ने तीनों प्रकार के लोक का भी विस्तार से वर्णन किया । लोक के बाद अलोक है । सिवाय आकाश-द्रव्य के उसके अन्दर कोई भी द्रव्य नहीं रहता, श्रीजिनेन्द्र भगवान ने अपनी दिव्य वाणी से उसका भी निःशंकित रूप से वर्णन किया ।१७।। उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का माना जाता है। जिस काल में मनुष्यों के बल, वीर्य आदि की निरन्तर वृद्धि होती जाए, उसका नाम ‘उत्सर्पिणी' है एवं जिस काल में उनकी हीनता होती जाए, उस काल को ‘अवसर्पिणी' माना गया है । उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी दोनों कालों में से प्रत्येक काल के छ:-छः भेद माने गए || म हैं । वे १.सुषमा-सुषमा २.सुषमा ३.सुषमा-दुःषमा ४.दुःषमा-सुषमा ५.दुःषमा एवं ६.दुःषमा-दुःषमा--इस रूप से हैं। || श्रीजिनेन्द्र भगवान ने किस रूप से किस काल की हानि होती है एवं किस रूप से किस काल की वृद्धि होती है, विस्तार से यह बात बतलाई तथा किस-किस काल में कितना-कितना आयु, काय आदि का परिमाण होता है, यह बात श्रीजिनेन्द्र भगवान ने अच्छी तरह प्रतिपादित की ।।१८।। तीर्थंकर, बलभद्र, चक्रवर्ती, नारायण एवं प्रतिनारायणों के चरित्रों का भी वर्णन किया एवं उनके कैसे शरीर थे, कैसी-कैसी ऋद्धियाँ थीं, कैसे-कैसे उन्हें सुख प्राप्त थे एवं कैसी-कैसी उनके शरीर आदि की सामर्थ्य थी--यह सब भी भलीभाँति वर्णन किया ।।६। द्वादशांग श्रुतज्ञान के अन्दर तीनों काल सम्बन्धी पदार्थों का जो भी वर्णन था, वह भी श्री जिनेन्द्र भगवान ने गणधरों के लिए व्यक्त कर बतलाया ।।६०।। श्रीजिनेन्द्र भगवान के मुख से निकले हुए महामिष्ट वचनरूपी धर्मामृत का पान कर समस्त गण अथवा संघ ने उस समय अपने को जन्मरूपी दाह से रहित समझा एवं वे अपने को परम सुखी अनुभव करने लगे ।।६।। श्री जिनेन्द्र भगवान का उपदेश सुन कर बहुत से धर्मात्मा भव्य जीवों को संसार से उदासीनता हो गई । उन्होंने धर्म-सम्बन्धी कार्यों के अन्दर मन लगाया एवं वैराग्यरूपी वज्र से मोहरूपी पर्वत को खण्ड-खण्ड कर पवित्र तप धारण कर लिया ।।६२।। श्रीजिनेन्द्र भगवान के मुख से धर्मोपदेश पाकर बहुत से पशु एवं मनुष्यों ने 'श्रावक ||९५ व्रत' अर्थात् 'अणुव्रतों' को धारण कर लिया एवं तप, दान, पूजन आदि पवित्र कार्यों में उन्होंने अपने भावों को दृढ़ किया ।।६३।। बहुत से देवों ने काल-लब्धि की कृपा से श्रीजिनेन्द भगवान के मुख से धर्मामृत का पान कर मिथ्यादर्शनरूपी विष का वमन कर दिया एवं सम्यग्दर्शन को धारण कर लिया ।।६४|| गणधरों में प्रधान गणधर 42Fb PF Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116