Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 108
________________ आत्म-शक्ति हीन हो चुकी है, आप धर्मामृत प्रदान कर इन्हें सबल बनावें, जिससे ये उत्तम फलों को प्राप्त कर लें ।।१०३।। हे प्रभो ! समस्त प्रकार के अनर्थों को करनेवाले बलवान शत्रु मोहनीय-कर्म की सेना को आपने सर्वथा नष्ट कर दिया है एवं सन्मार्ग के उपदेश करने की आपमें परिपूर्ण योग्यता प्रगट हो गई है। अब यह समय उस वास्तविक मार्ग के उपदेश का आकर उपस्थित हो गया है, जब आप भव्य जीवों को धर्मोपदेश प्रदान करें। विशेष कहना व्यर्थ है। हे प्रभो ! प्रार्थना यही है कि भव्य-जीवों के आप शरण बनें--उन्हें वास्तविक मार्ग का उपदेश प्रदान करें; क्योंकि इस संसार में भव्य-जीवों के शरण आप ही हैं--आपके सिवाय अन्य कोई शरण नहीं हो सकता।' इस प्रकार विनयपूर्वक निवेदन कर वह धर्मात्मा सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी जगह पर आकर बैठ गया ।। १०४-१०।। जिस प्रकार सूर्य कमलों को प्रस्फुटित कर उनका उपकार करता है एवं समस्त जीवों के हित में उद्यत रहता है अर्थात् सूर्य के उदयकाल में ही समस्त प्राणी अपने-अपने हितकारी कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, उसी प्रकार धर्म के सूर्य-स्वरूप वे श्रीजिनेन्द्र भगवान समस्त जीवों के हित में उद्यत होकर समस्त भव्य जीवरूपी कमलों के उपकार की अभिलाषा से इन्द्र की प्रार्थना के अनुसार शीघ्र ही अपने आसन से उठ खड़े हुए एवं चक्रवर्ती जिस प्रकार विशाल विभूति एवं सेना आदि के साथ दिग्विजय करने के लिए जाता है एवं चक्र उसके आगे चलता है, उसी प्रकार धर्म के चक्रवर्ती वे श्रीजिनेन्द्र भगवान मुनि-आर्यिका आदि संघ एवं अनेक देवों के साथ विशाल विभूति से मण्डित होकर दिग्विजय करने के लिए अर्थात् समस्त आर्य क्षेत्र में धर्मोपदेश करने के लिए चल दिए एवं धर्मचक्र उनके आगे-आगे चलने लगा ।। १०६-१०७।। उस समय भगवान के प्रस्थान करने पर पटह आदि अगणित वाद्यों की तुमुल ध्वनि से एवं 'हे देव ! जीवें, नादें, विरदे' इत्यादि मनोहर शब्दों से समस्त आकाश को व्याप्त करते हुए देवगण अत्यन्त आनन्दित होकर उनके साथ-साथ चलने लगे।। १०८।। अहंत भगवान को चौंतीस (३४) अतिशय माने गए हैं। उनमें दश जन्म के अतिशय हैं, उनका वर्णन तो उनके जन्म के समय कर दिया गया है। केवलज्ञान के समय दश अतिशय होते हैं, वे इस प्रकार हैं-- १.जिस स्थान पर श्रीजिनेन्द्र भगवान का समवशरण है, उसके चारों ओर एक सौ योजन पर्यंत सुभिक्षता का होना, २.आकाश में गमन, ३.व्याघ्र आदि क्रूर जीवों के द्वारा अन्य निर्बल प्राणियों का न मारा जाना अर्थात् अदया 4444 थ |९७ Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org

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