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अज्ञानरूपी अन्धकार एवं पापों का क्षय हो गया ।।१२।। हे भगवान ! आप गुणों के समुद्र हैं; इसलिए स्वर्ग एवं मोक्ष की अभिलाषा से आपको नमस्कार है, आप दिव्य शरीर के धारक हैं एवं घातिया-कर्मों का नाश करनेवाले है; इसलिए आपको नमस्कार है ।। १३।। विशेष क्या ? बस ! सविनय प्रार्थना यही है कि आपने जिस अलौकिक विभूति को प्राप्त किया है, वह कृपा कर बहुत शीघ्र हमें भी प्रदान करें; क्योंकि आप संसार के अन्दर कृपानाथ हैं एवं याचकों के लिए
कल्पवृक्ष हैं ।।१४।। इस प्रकार देवेन्द्रों ने भक्तिपूर्वक श्रीजिनेन्द्र भगवान की स्तुति की, जिस अभीष्ट वस्तु की उन्हें म || प्रार्थना करनी थी, वह प्रार्थना की एवं वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए वे श्री जिनेन्द्र भगवान के सन्मुख |
अपने-अपने कोठों में जाकर बैठ गए ।।१५।। श्रीमल्लिनाथ भगवान के सबसे प्रधान गणधर विशाख थे, जो कि पूर्ण | बुद्धि के धारक थे, नाना प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त थे। जिस समय उन्होंने देखा कि कोठों में बैठनेवाले समस्त भव्य जीव धर्म का स्वरूप जानने के लिए उत्सुक हैं, तब वे उठे । हाथों को जोड़कर उन्होंने तीन जगत् के गुरु श्री | जिनेन्द्र भगवान को भक्तिभाव से नमस्कार किया । सैकड़ों प्रकार के स्तुति परिपूर्ण वचनों से स्तुति की एवं स्वयं इस | थ प्रकार श्री जिनेन्द्र भगवान से पूछने लगे--
'हे देव ! आप सर्वज्ञ हैं, इसलिए तत्वों का स्वरूप, धर्म का अखण्ड लक्षण एवं बारह अंगों के अन्दर जो-जो || पु बातें बतलाई गईं है, उन सब बातों के जानकार हैं । कृपा कर उन सब बातों का हमारे जानने के लिए स्वरूप वर्णन || रा करिए' ।।१६-१७।। गणधर विशाख की इस प्रकार की पवित्र धर्म-जिज्ञासा सुन कर समस्त प्राणियों का हित सम्पादन करने के लिए एवं मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति प्रकट करने के लिए “जीवों को वास्तविक ज्ञान हो" इस कृपा से प्रेरित वे श्री जिनेन्द्र भगवान धर्मोपदेश के लिए प्रवृत्त हो गए ।।१६।। यह नियम है कि वक्ता जिस समय बोलता है, उसके मुख पर कुछ विकार एवं तालु अथवा ओठों का हलन-चलन होने लगता है। परन्तु जिस समय भगवान धर्मोपदेश के लिए प्रवृत्त हुए थे, उस समय उनके मुख पर किसी प्रकार का विकार प्रतीत नहीं होता था एवं तालु-ओंठ आदि ||८६ का हलन-चलन भी किसी प्रकार से नहीं होता था; इसलिए इस आश्चर्यकारी रूप से श्री जिनेन्द्र भगवान के मुख से वचन-भंगी निकलती थी। वे श्री जिनेन्द्र भगवान, गणधर विशाख को उत्तर में इस प्रकार कहने लगे--'हे बुद्धिमान समस्त गण सभासदों के स्वामी ! मैं आगम के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करता हूँ, वह तुम्हें एवं समस्त गण को
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