Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 73
________________ के लिए इन्द्र ने अपनी देवियों के साथ अत्यंत आनन्दमयी नृत्य किया, जो कि सुहावना लगनेवाला बड़ा मनोहर था। नृत्य करते समय कभी छोटा आकार, तो कभी बड़ा आकार--इस प्रकार अनेक आकार मालूम पड़ते थे। कभी | अत्यंत निकट में जान पड़ता था तथा कभी अत्यंत दूर में जान पड़ता था। बीन, बाँसुरी, मृदंग आदि अनेक प्रकार के वाद्य बजते थे एवं अनेक प्रकार के गाने होते थे, अनेक प्रकार से शरीर का हिलना-डुलना होता था; इसलिए इन विशिष्ट बातों से वह नृत्य समस्त जगत् को आश्चर्यित करनेवाला महामनोहर जान पड़ता था ।।५७-५६।। जब नृत्य म | का कार्य समाप्त हो चुका, उस समय धात्री के वेषवाली देवियों को तथा भगवान की ही अवस्था वाले उनके ही समान || रूप के धारक तथा अनेक प्रकार के वेषों के धारण करनेवाले बहुत से देव कुमारों को उनकी सेवा, सुश्रुषा तथा साथ-साथ खेलने के लिए नियुक्त कर दिया । इसलिए वे बराबर उनकी सेवा, सुश्रुषा करने लगे एवं साथ-साथ खेलने लगे। इस प्रकार तीर्थंकर के प्रति अनेक प्रकार की भक्ति प्रदर्शित कर तथा उससे जायमान अनेक प्रकार का पुण्य उपार्जन कर समस्त देव स्वर्ग को एवं अपने-अपने स्थानों को चले गए ।।६०-६१।। जिन देव कुमारों को तीर्थंकर | की सेवा, सुश्रुषा तथा उनके साथ खेलने के लिए नियुक्त किया गया था; वे देव कभी गजराज का रूप बना कर, तो कभी अश्व का रूप बना कर, तो कभी बन्दर आदि का रूप बना कर तीर्थंकर के साथ क्रीड़ा करते थे तथा उनकी सेवा के लिए जो देवियाँ नियुक्त थीं, वे भी बड़ी भक्ति से उनका आदर-सत्कार करती थीं। उनमें कोई-कोई देवियाँ तो तीर्थंकर को अनेक प्रकार की मण्डन हेतु वस्तुओं से मण्डित करती थीं, बहुत-सी सुगन्धित जल से उन्हें स्नान कराती थीं एवं बहुत-सी अनेक प्रकार के भूषण उन्हें पहिनाती थीं ।।६२-६३।। वे भगवान श्री मल्लिनाथ मन्द-मन्द हास्य करते थे अर्थात् पुलकते थे। मणिमयी भूमि पर रेंगते थे, इसलिए बाल्य अवस्था की अनेक प्रकार की क्रीड़ा तथा पुलकन आदि से वे माता-पिता को परमानन्द प्रदान करते थे ।।६४।। जिस प्रकार चन्द्रमा नाना प्रकार की कलाओं से उज्ज्वल रहता है तथा देखनेवालों के नेत्रों को आनन्द तथा आमोद प्रदान करता है, उसी प्रकार उन ||६२ भगवान श्रीमल्लिनाथ का भी शैशव काल दिव्य था, चन्द्रमा के समान अनेक प्रकार के कला-कौशलों से दैदीप्यमान था एवं बन्धु-बांधव तथा देवों आदि के नेत्रों को अत्यंत आनन्द तथा उत्साह का प्रदान करनेवाला था ।।६५।। उन भगवान के मुखकमल से मन्मन् स्वरूप स्पष्ट भाषा निकलती थी एवं मणिमयी भूमि पर खेलते हुए वे पग-पग पर Jain Education International For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org

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