Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 88
________________ को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं 'हे प्रभो ! तिष्ठ-तिष्ठ' ऐसा कह कर उसी क्षण उन्हें ठहराया ।।७०-७१।। श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति आदि दाता के सात गुणों से भूषित एवं पुण्य के उत्पन्न होने के कारण पडिगाहन, उच्चासन प्रदान करना, प्रक्षाल, पूजा आदि नवधा भक्ति से विभूषित राजा नन्दिषेण ने उत्तम पात्र तीर्थंकर के लिए क्षीरान्न (खीर) का भक्तिपूर्वक आहार दिया; जो दोषरहित मधुर था, मनोहर था, तृप्ति दायक था, उत्कृष्ट था, प्रासुक था एवं अपने-पराये का कल्याण करनेवाला था ।।७२-७३।। उत्तम पात्र तीर्थंकर को दान देने से उत्पन्न हुए पुण्य का उपार्जन कर राजा नन्दिषेण ने स्वयं तीर्थंकर को आहारदान देने से अपने गृहस्थाश्रम को सफल समझा एवं अपना धन तथा जीवन भी सफल एवं उत्कृष्ट माना ।।७४।। __वे तीर्थंकर सदा संयम एवं वैराग्य की भावना का चिन्तवन करते थे, ध्यान एवं अध्ययन में सदा प्रवृत्त रहते थे तथा जंगल, खण्डहर आदि निर्जन स्थानों में सदा उनका निवास रहता था ।।७।। पराक्रम के साथ निर्ग्रन्थ होकर वे पृथ्वी पर विहार करते थे। इस प्रकार छः दिन तक सिर कर तीर्थंकर ने जहाँ पर दीक्षा धारण की थी, उसी दीक्षावन (श्वेतवन) में वे आ गये ।।७६।। श्वेतवन में आकर अशोक वृक्ष के नीचे उन्होंने अच्छी तरह ध्यान का अवलम्बन किया। सम्यक्त्व, ज्ञान, वीर्य आदि जो सिद्धों के आठ गुण कहे गये हैं, उन्हें प्राप्त करने की अभिलाषा से सबसे पहिले उन्होंने सिद्धों के आठ गुणों का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया ।।७७।। उसके बाद परम जितेन्द्रिय एवं प्रमादरहित वे तीर्थंकर चित्त को स्थिर कर उत्कृष्ट, ध्यान, धर्म्यध्यान के आज्ञाविचय आदि चारों पायों का स्फुट रूप से ध्यान करने लगे।७।। स्थिर चित्त के धारक वीतराग तीर्थंकर ने उस धर्म्यध्यान के बल से बहुत से कर्मों को शिथिल कर डाला एवं बहुत से कर्मों का क्षय भी कर डाला एवं उस ध्यान के सम्बन्ध से मोक्षरूपी महल में जाने के लिए सीधी सीढ़ी स्वरूप क्षपकश्रेणी में पदार्पण कर दिया एवं 'पृथक्त्ववितर्क' नामक प्रथम शुक्लध्यान के द्वारा मोहनीय-कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का सर्वथा क्षय कर उसे उखाड़ कर फेंक दिया ।।७६-८०|| महायुद्ध में शत्रु को मार कर तीक्ष्ण खड्ग का धारक महाभ? जिस प्रकार शोभित होता है, उसी प्रकार चारित्ररूपी संग्राम में ध्यानरूपी तीक्ष्ण खड्ग के धारक महातपस्वी तीर्थंकर भी मोहरूपी मल्ल को मार कर महाभट्ठ के समान अत्यन्त शोभित होने लगे ।।८।। पौष बदी द्वितीय का दिन पूर्वान्ह के समय जब कि पुनर्वसु नाम के शुभ नक्षत्र का उदय था, भगवान 44444 थ مي ه Jain Education International For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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