Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 94
________________ 44 सोलह भीतियाँ थीं, जो कि स्फटिक रत्नों की बनी थीं एवं विशाल गलियारों के अन्तरालों में विद्यमान थीं ।।१३६।। उन स्फटिक मणिमयी भीतों के ऊपर विशाल 'श्रीमण्डप' बना हुआ था, जो कि विस्तृत था, रत्नमयी स्तम्भों से वेष्टित था एवं निर्मल स्फटिक पाषाण का बना हुआ था; अतएव साक्षात् आकाश का बना हुआ जान पड़ता था ।।१४०।। श्रीमण्डप से जितना क्षेत्र रुका हुआ था, उस क्षेत्र के ठीक मध्यभाग में पहिली पीठिका (पीठ) थी, जो कि वैडूर्य जाति की हरी मणियों से बनी थी, अत्यन्त शुभ थी एवं मांगलिक द्रव्यों तथा अन्य विभूतियों से शोभायमान थी ।।१४१।। इस पीठिका के अन्दर धर्मचक्र विद्यमान थे, जिन्हें यक्षगण अपने मस्तकों पर रक्खे हुए थे, जो महा दैदीप्यमान थे, हजार-हजार अराओं के धारक थे एवं सूर्य के प्रतिबिम्बों सरीखे जान पड़ते थे ।। १४२।। उसी जगह पर सोलह सीढ़ियों के अन्तर से सोलह सोपान मार्ग 1, जिनसे कि चारों दिशाओं में विद्यमान कोठों के अन्दर प्रवेश किया जाता था ।। १४३।। उस समय पीठ के ऊपर दूसरा पीठ था, जो कि सुवर्णमयी था एवं आठों दिशाओं में चक्र एवं गजराज आदि के चिन्हों की धारक आठ ध्वजाओं से शोभायमान था ।। १४४।। इस दूसरे पीठ के ऊपर तीसरा पीठ था, जो कि दैदीप्यमान मणियों का बना हुआ था, तीन कटिनियों से शोभायमान था, उन्नत था एवं उसकी प्रचण्ड कान्ति से समस्त दिशायें जगमगाती थीं ।। १४५।। इस तृतीय पीठ पर गन्धकुटी थी, जो कि अपनी उत्कट सुगन्धि से समस्त दिशाओं को सुगन्धित करनेवाली थी, दिव्य सुगन्धि की धारक थी, उत्कृष्ट थी एवं भाँति-भाँति से पुष्पों के समूह से व्याप्त थी ।।१४६।। इस गन्धकुटी के मध्य भाग में महामनोहर सिंहासन विद्यमान था, जो कि नाना प्रकार के दैदीप्यमान रत्नों की प्रभा से समस्त आकाश को व्याप्त करनेवाला था, दिव्य था एवं मेरु पर्वत का शिखर सरीखा प्रतीत होता था, अतएव वह अत्यन्त शोभायमान जान पड़ता था।।१४७।। इसी पवित्र सिंहासन को दिव्य रूप के धारक तीन जगत् के गुरु श्रीजिनेन्द्र भगवान ने सुशोभित कर रक्खा था एवं वे अपने अलौकिक माहात्म्य से उसके तल भाग का स्पर्श न कर चार अंगुल प्रमाण आकाश में विराजते थे ।। १४८।। इस दिव्य सिंहासन के चारों ओर देव, मनुष्य आदि के बैठने के बारह कोठे थे। उनमें से पहिले कोठे में मुनिगण विराजते थे, दूसरे में कल्पवासी देवियाँ तीसरे में आर्यिकायें, चौथे में ज्योतिषी देवों की देवांगनायें, पाँचवें में व्यन्तर देवों की देवियाँ, छठे में भवनवासी देवों की देवांगनायें सातवें ८३ Jain Education Intemational For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org


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