Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 93
________________ की ऊँचाई से बारह गुणी अधिक होती है; अर्थात् जिस तीर्थंकर का समवशरण होगा, उस तीर्थंकर के शरीर की जो ऊँचाई होगी, उस ऊँचाई से समवशरण के अन्दर रहनेवाले परकोट आदि की ऊँचाई नियम से बारह गुणी होगी तथा जितनी ऊँचाई होती है, उसी के अनुकूल उनकी चौडाई होती है। यह समवशरण उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ का था; इसलिए उनके शरीर की जितनी ऊँचाई थी, उससे बारह गुणी इस समवशरण के प्राकार आदि की ऊँचाई थी तथा ऊँचाई के अनुकूल चौड़ाई थी ।।१२६।। क्रीड़ा-पर्वत, लता-गृह तथा वनों की ऊँचाई आगम के जानकार पुरुषों ने आगम में एक-सी ही बतलाई है ।। १३०।। पुराणों के जानकार समस्त आगम के पारगामियों ने पर्वतों की चौड़ाई अपनी-अपनी ऊँचाई की अपेक्षा आठ-आठ गुणी मानी है। स्तूपों की जो ऊँचाई कही गई है, उससे कुछ अधिक उनकी चौड़ाई मानी है तथा वनवेदी आदि का विस्तार उनकी ऊँचाई से चौथा भाग माना है ।।१३१-१३२।। | वनवेदियों के भीतर की भूमि में प्रासादों की पंक्तियाँ थीं, जो कि दो खण्ड, तीन खण्ड तथा चार खण्डवाली थीं, महामनोहर ऊँची-ऊँची तथा रत्नमयी थीं ।। १३३।। गलियों के मध्य भाग में नौ स्तूप थे, जो कि पद्मराग मणिमय थे तथा सिद्ध भगवान की प्रतिमाओं से अलंकृत थे ।। १३४।। स्तूपों के मध्य भागों में रत्नमयी तोरण तथा मालिका थीं, जिन्होंने कि अपनी कान्ति से समस्त आकाश को व्याप्त कर रक्खा था, अतएव वे इन्द्र धनुषमयी सरीखी जान पड़ती थीं ।।१३५।। स्तूपों की भूमि के बाद एक स्फटिकमयी परकोटा था, जो कि शुद्ध स्फटिक रत्न का बना हुआ था तथा अपनी प्रभा से समस्त दिशाओं को धवल करनेवाला था, अतएव जो आकाश-सा बना हुआ जान पड़ता था ।।१३६।। इस स्फटिकमयी परकोटे की भी चारों दिशाओं में पहिले के समान चार सदर दरवाजे थे, जो कि अत्यन्त शोभायमान थे। वे दरवाजे पद्मराग मणियों से बने हुए थे तथा पहिले प्राकारों के दरवाजों के समान ही निधियों, कलश तथा झाड़ी आदि मांगलिक द्रव्यों से युक्त थे ।।१३७।। सदर दरवाजों पर गदा आदि शस्त्रों को हाथों में लिए ||८२ हुए देव थे, उनमें भी पहिले परकोट के दरवाजों पर हाथों में शस्त्र लिए व्यन्तर देव खड़े थे । दूसरे परकोट के दरवाजों पर भवनवासी देव थे तथा तीसरे परकोट के सदर दरवाजों पर वैमानिक देव हाथ में हथियार लिए द्वारपालों का कार्य कर रहे थे ।।१३।। समवशरण की भूमि के मध्य एवं आदि के भाग से सटी हुई परकोटों के अन्त तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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