Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 87
________________ नमस्कार है ।।६३-६४।। आप दिव्यरूप हैं, इसलिए आपको नमस्कार है । मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए आपकी पूरी इच्छा है, इसलिए आपको नमस्कार । आप हितात्मा हैं--दूसरे जीवों का एवं अपना भी हित करनेवाले हैं; इसलिए आपको नमस्कार है एवं आप समस्त गुणों के समुद्र हैं, इसलिए आप नमस्कार करने योग्य हैं ।।६।। हे देव ! यह विनयपूर्वक प्रार्थना है कि यह भी हमने आपकी भक्ति एवं स्तुति की है, उसका फल हम यही चाहते हैं कि बाल्यावस्था में भी संयम की प्राप्ति के लिए जिस प्रकार आपके अन्दर अचिंत्य शक्ति विद्यमान है, वह शक्ति आपकी कृपा से हमें भी प्राप्त हो' ।।६६।। इस प्रकार भक्तिपूर्वक भगवान श्रीमल्लिनाथ की स्तुति कर देवेन्द्रों ने बारम्बार उन्हें नमस्कार किया एवं उनकी महिमा की प्रशंसा करते हुए वे लोग अत्यन्त प्रसन्नता के साथ अपने-अपने स्थान लौट गये।।६७।। दीक्षा के समय परिणामों की इतनी उज्ज्वलता रहती है कि उस समय सातवें गुणस्थान के परिणाम हो जाते हैं, सातवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होने से पीछे वे छठे गुणस्थान में आते-जाते रहते हैं । समस्त बाह्य आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग कर जिस समय श्रीमल्लिनाथ भगवान ध्यान के अन्दर निश्चल हुए थे, उस समय उत्कट ध्यान की सामर्थ्य से उनके 'मनःपर्ययज्ञान' नाम का चौथा ज्ञानरूपी सूर्य प्रकट हो गया था एवं उस समय वे मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान--इस प्रकार चार ज्ञानों के धारक बन गये थे। जो दिन उनके पारणा का था, उस दिन उन्होंने संयम करते-करते ही यह विचारा कि शरीर की स्थिति के लिए आहार लेना भी सुनिश्चित मार्ग है; अर्थात संयम का साधक है; इसलिए आहार का लेना उन्होंने निश्चित कर लिया। वे श्रीजिनेन्द्र भगवा में संसार एवं शरीर भोगों से वैराग्य की भावना का चिन्तवन करते-करते जूरा प्रमाण जमीन को देखते-देखते आहार के लिए चल दिये एवं दानियों को सन्तोष प्रदान करने के लिए मिथिलापुरी में प्रवेश कर गये ।।६८-६६।। तब मिथिलापुरी में सुवर्ण के समान महामनोज्ञ कान्ति का धारक नन्दिषेण नाम का एक राजा रहता था। आहार की अभिलाषा से घूमते हुए श्री जिनेन्द्र भगवान को देखकर एवं हृदय में यह विचार कर कि जिस प्रकार खजाने मिलना अत्यन्त दुर्लभ है--सामान्य भाग्यवान को वह नहीं प्राप्त हो सकता, उसी प्रकार उत्तम पात्र (मुनि) का मिलना भी कठिन है, तब महान तपस्वी तीर्थंकर का मिलना तो अत्यन्त कठिन ही है। हरएक समय हरएक को उनका मिलना सम्भव नहीं हो सकता, तीर्थंकर को देख कर उसे बड़ा हर्ष हुआ। दोनों हाथ जोड़ कर उनके चरणकमलों 44 ७६ Jain Education Wemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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