Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 74
________________ श्री ल्लि गिरते पड़ते थे ।। ६६ ।। अपने योग्य महामनोज्ञ अन्न-पान आदि के आहार से उनका शरीर क्रम से दिनों-दिन बढ़ता जाता था एवं जिस प्रकार शरीर बढ़ता चला जाता था, उसी प्रकार महामनोहर अंग-प्रत्यंग फैलते चले जाते थे एवं निरंतर बुद्धि, ज्ञान तथा गुण आदि की भी वृद्धि होती चली जाती थी ।। ६७।। मति, श्रुति एवं अवधिरूपी तीन ज्ञान धारक तीर्थंकर की बाल्यावस्था के बीत जाने पर जिस समय कुमार अवस्था प्रकट हुई थी, उस समय ज्ञान-विज्ञान तथा बुद्धि आदि गुण अपने-आप वृद्धि को प्राप्त होने लगे थे ।। ६८ ।। कुमार अवस्था में माता-पिता को परमानन्द श्री प्रदान करनेवाले तीर्थंकर ने अनेक निर्मल गुणों के साथ धीरे-धीरे क्रम से अत्यन्त शुभ यौवन अवस्था को भी प्राप्त म कर लिया था ।।६६।। उस समय सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र स्वयं कल्याण प्राप्ति की अभिलाषा से कभी-कभी वीणा आदि वाद्यों से, कभी-कभी नृत्य करनेवाले देवांगनाओं के कौतुक से, कभी-कभी काव्य आदि की गोष्ठियों से, कभी-कभी अनेक रूप एवं हाव-भाव आदि को धारण करनेवाली चेटक विद्याओं से एवं कभी-कभी अन्य प्रकार के विनोद एवं कौतूहलों से तीर्थंकर को अत्यन्त प्रसन्न रखता था ।। ७०-७१।। देवगण अवस्था एवं समय योग्य माला, वस्त्र एवं भूषण तीर्थंकर को पहिनाया करते थे, इसलिए अवस्था के योग्य देवों द्वारा पहिनाए गए वस्त्र एवं भूषणों से अलंकृत शरीर के धारक तीर्थंकर अपनी उग्र कान्ति से चन्द्रमा को जीतनेवाले थे; इसलिए उस समय वे अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे । । ७२|| तीर्थंकर का शरीर एक हजार आठ लक्षणों से शोभायमान था, परम औदारिक था एवं उपमारहित था; इसलिए वह अत्यन्त शोभायमान जान पड़ता था || ७३ || नीले-नीले घुँघराले बालों से शोभायमान तीर्थंकर का मस्तक जिस समय मुकुट से अलंकृत होता था, उस समय वह देव सम्बन्धी माला को धारण करनेवाला महामनोहर मेरु पर्वत का श्रृंग सरीखा जान पड़ता था ।।७४ || अपनी अनुपम कान्ति समस्त दिशाओं को व्याप्त करनेवाला तीर्थंकर का अत्यन्त विशाल ललाट अतिशय शोभायमान जान पड़ता था एवं उनकी महामनोहर भृकुटियें एवं दोनों विशाल नेत्र अत्यन्त शोभित जान पड़ते थे ।। ७५ ।। तीर्थंकर के दोनों कान मणिमयी कुण्डलों की किरणों से अत्यन्त शोभायमान थे । अपनी अनुपम दीप्ति ने चन्द्रमा को जीतनेवाले उनके दोनों कपोल भी महामनोज्ञ थे एवं उनकी ऊपर को उठी हुई ऊँची नासिका महामनोहर थी ।। ७६ ।। जिस प्रकार चन्द्रमा से अमृत झरता था, एवं वह विष का हरनेवाला होता है (ऐसी प्रख्याति है ) उसी प्रकार तीर्थंकर के मुखचन्द्र से प्रतिदिन दिव्य भाषारूपी ६३ For Private & Personal Use Only ल्लि ना थ पु रा ण Jain Education International ना थ पु रा ण www.jainelibrary.org

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