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हम कैसे संसार में जीवित रह सकेंगे ।।४१।। इस प्रकार अत्यन्त शोक परिपूर्ण वाक्यों से श्रीजिनेन्द्र भगवान के भृत्य, बन्धु-बांधव तथा उनकी माता आदि स्त्रियाँ बड़े ऊँचे स्वरों में रोते-चिल्लाते थे तथा श्री जिनेन्द्र भगवान जिस मार्ग से दीक्षा-वन को गए थे, उसी मार्ग पर शोक से विहल होकर दौड़ते चले जाते थे ।।४२।। वैमानिक देवों में एक महत्तर जाति के देव हैं। शोक से विहल हो माता प्रजावती को इस प्रकार जाते हुए देखकर वे महत्तर देव उनके समीप आये तथा उन्हें रोककर इस प्रकार नम्र निवेदन करने लगे--
'हे देवी ! आप जो इस तरह शोक से विहल हो रही हो. सो आपको कदापि शोभा नहीं देता। श्रीजिनेन्द्र भगवान तीनों लोक के स्वामी हैं । समस्त हित-अहित के जानकार हैं । क्या आप उनके चरित्र को बिल्कुल नहीं समझती हो ? ।।४३।। मृग जिस प्रकार पाश के अन्दर फंस कर बँध जाता है, उस प्रकार सिंह पाश के अन्दर जकड़ कर नहीं रह सकता । हे माता ! आपके पुत्र श्रीजिनेन्द्र भगवान वीतराग हैं--समस्त संसार की सम्पत्ति से उनका राग छट चका है तथा ममक्ष हैं--मोक्ष प्राप्ति के लिए परी अभिलाषा चित्त में ठान ली है। इसलिए भोगों की रमणीयता देख कर जिस प्रकार मुर्ख मनष्य उनमें उलझ जाता है एवं उन्हें दिन-रात्रि भोगता है, उसी प्रकार वे अब नहीं भोग सकते । उनके कार्य पर किसी प्रकार का शोक करना वृथा है'।।४४।। जब महत्तर जाति के देवों ने इस प्रकार मधुर वचनों में माता प्रजावती को समझाया, तो उनकी समझ में आ गया एवं वह राजमाता अपने बन्धुओं के साथ बड़े कष्ट से राजमहल की ओर लौट गईं ।।४।।
श्रीजिनेन्द्र भगवान ने जिस वन में जिन-दीक्षा धारण की थी, उस वन का नाम 'श्वेतवन' था । श्वेतवन का उद्यान उस समय बड़ा ही मनोहर था एवं जगह-जगह भाँति-भाँति के पुष्प एवं फल उसकी शोभा बढ़ाते थे। देवों. ने वहाँ पर पहिले से ही एक शिला का निर्माण कर रक्खा था। वह शिला अत्यन्त शुद्ध थी, मणिमयी मंडप से अत्यन्त शोभायमान थी। उसके पसवाड़ों में कलश, झाड़ी आदि मांगलिक द्रव्य विद्यमान थे, वह स्फटिकमणि की बनी थी तथा ७३ गोलाकार थी। शिला के समीप आते ही जिस पालकी को देवगण लाए थे, श्रीजिनेन्द्र भगवान उससे उतर पड़े। उसी समय श्रीजिनेन्द्र भगवान ने १.क्षेत्र २.वास्तु ३.हिरण्य ४.सुवर्ण ५.धन ६.धान्य ७. दासी ८. दास ६. कुप्य १०. भांड--इस प्रकार दश प्रकार का बाह्य परिग्रह एवं १.मिथ्यात्व २.स्त्रीवेद ३.पुरुषवेद ४.नपुंसकवेद ५.हास्य ६.रति ७.
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