Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 67
________________ ॐ जा चुका है, भगवान श्री जिनेन्द्र के अभिषेक का उत्सव देखने के लिए देवगण चारों ओर से उसे घेर कर बैठ गए तथा दिशाओं की रक्षा करनेवाले दिक्पाल देव भी उत्सव का ठाट-बाट देखने के लिए यथायोग्य अपनी-अपनी दिशाओं में सन्नद्ध हो गए। पांडुक शिला पर देवों ने श्री जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के समय एक विशाल मण्डप का निर्माण किया था । देवियों ने महामनोहर गीत, उत्तमोत्तम वाद्य के शब्द एवं नृत्यों के साथ भगवान श्रीजिनेन्द्र के अभिषेक का महान उत्सव करना प्रारम्भ कर दिया ।।३।।भगवान के अभिषेक के समय देवगण सुवर्णमयी कुम्भों में क्षीरोदधि समुद्र का अत्यन्त स्वच्छ एवं पवित्र जल लाते हैं, उससे भगवान का अभिषेक किया जाता है । जिन || सवर्णमयी कलशों में भगवान के अभिषेक का जल लाया गया था, उन कलशों का मुख एक-एक योजन चौड़ा था, आठ योजन प्रमाण वे गहरे थे, मोतियों की माला आदि से भूषित थे एवं अनेक अर्थात् संख्या में एक हजार आठ थे। क्षीर समुद्र से जल लाते समय देवों के चित्त आनन्द से गद्गद् थे; इसलिए वे फैल कर उस समय लड़ीबद्ध |ना खड़े थे।।४-५।। भगवान श्री मल्लिनाथ के अभिषेक के समय सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र के हर्ष का पारावार नहीं था । अभिषेक के समय उसे दो भुजाओं से भगवान श्री जिनेन्द्र का अभिषक करना पसन्द नहीं आया; इसलिए शीघ्र ही ॥ उसने अनेक दिव्य आभूषणों से मण्डित हजार भुजाएँ बना लीं।।६।। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने "हे भगवान जयवन्त रहो" ऐसा भक्तिपूर्वक उच्चारण कर जिनमें सुवर्णमयी कलश विद्यमान हैं, ऐसे अपने मनोहर हाथों से सबसे पहिले जल-धारा भगवान के मस्तक पर छोड़ी। उस प्रथम जलधारा के देते ही वहाँ पर विद्यमान असंख्यात सुर एवं असुरों को परमानन्द हुआ; इसलिए उनका तुमुल कोलाहल होने लगा एवं उसके बाद समस्त इन्द्रों ने मिल कर भगवान श्री जिनेन्द्र के मस्तक पर अगणित जल-धाराएँ छोड़ी ॥७-च। जिस समय इन्द्रगण उनके मस्तक पर जल-धारा छोड़ते थे, उस समय वे धाराएँ महान नदियों के समान उनके मस्तक पर गिरती थीं; प स प्रकार विशाल पर्वत पर पड़नेवाली नदियों की धाराओं से वह रन्चमात्र भी हिलता-डुलता नहीं था, उसी प्रकार अचिंत्य शक्ति के धारक भगवान श्रीमल्लिनाथ भी अपने अनुपम प्रभाव से उन्हें क्रीडापूर्वक झेलते थे, घबड़ा कर जरा भी वे हिलते-डुलते नहीं थे ।।६।। उस समय रंग-बिरंगी रत्नों की भूमियों पर पड़ने के कारण रंग-बिरंगी जल की बूंदों से व्याप्त आकाश इन्द्रधनुष की शोभा से व्याप्त जान पड़ता था। पांडुक वन में सर्वत्र क्षीर समुद्र का जल ही जल डोलता नजर आता था; इसलिए ८44 Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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