Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 65
________________ कल्याणकों में समस्त देव सम्यग्दृष्टी ही आवें यह नियम नहीं, बहुत से मिथ्यादृष्टि देव भी आते हैं; क्योंकि वे इन्द्र के आज्ञाकारी होते हैं; इसलिए इन्द्र की आज्ञानुसार अवश्य उन्हें वहाँ पर आना पड़ता है । भगवान श्रीमल्लिनाथ के जन्मकाल में जो भी मिथ्यादृष्टि देव आये थे, वे भी यह निश्चय कर कि “जब स्वयं सौधर्म स्वर्ग का स्वामी भगवान श्रीमल्लिनाथ की सेवा में भक्तिपूर्वक लगा हुआ है, तब यही ठीक जान पड़ता है कि समस्त मतों में जैन मत ही पवित्र एवं कल्याण प्रदान करनेवाला है, अन्य मत नहीं", उनका जैन-धर्म पर प्रगाढ़ श्रद्धान हो गया ।।१६।। उस समय मेरु पर्वत पर जाने का अवसर था, इसलिए समस्त देव अपने-अपने इन्द्रों के संग अपने-अपने वाहनों पर सवार थे; भगवान श्री जिनेन्द्र के नाना प्रकार के महोत्सवों के करने में वे व्यग्र थे । वीणा, मृदड़, बाँसुरी सहस्रों प्रकार के वाद्य बज रहे थे। भगवान श्री जिनेन्द्र के उत्सव का गान गन्धर्व जाति के देव एवं किन्नर जाति की देवांगनाएँ महामनोहर ललित शब्दों में करती हुई चल रही थीं । उस समय अप्सराएँ नेत्रों को परमानन्द प्रदान करनेवाला महामनोहर नृत्य करती चली जाती थीं। ध्वजा एवं छत्र आदि उपकरणों की भरमार से उस समय सारा आकार ढंका सरीखा जान पड़ता था। इस प्रकार उत्कृष्ट एवं विपुल विभूति से उस समय सारा आकाश व्याप्त था ।।८७-८६।। जो अपने पीछे एवं आगे चलनेवाले असंख्यात देवों से व्याप्त था एवं परम धर्मात्मा था, ऐसा सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र उस समय मेरु पर्वत पर आया, भक्तिभाव से उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी एवं अत्यन्त हर्ष के साथ तीन लोक के स्वामी भगवान श्री मल्लिनाथ को मेरु पर्वत पर ले आया ।।१०।। मेरु पर्वत के मस्तक पर ईशान कोण में एक पांडुक नाम की शिला है एवं उसके मध्य भाग में सिंहासन विद्यमान है । इन्द्राणी एवं अनेक इन्द्र आदि से वेष्टित सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र उस स्थान पर आया एवं तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ का जन्माभिषेक करने की उत्कष्ट अभिलाषा से उन्हें वहाँ पर विराजमान कर दिया ।।६।। जिस पांडुक शिला पर ले जाकर इन्द्र ने भगवान श्री मल्लिनाथ को विराजमान किया था, उस शिला की प्रशंसा ||५४ करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि वह पांडुक शिला अत्यन्त शुद्ध स्फटिकमयी पाषाण की है एवं उस स्फटिक मणि से निकलनेवाली रत्नों की किरणों से व्याप्त है । उस शिला पर अनन्त तीर्थंकरों का अभिषेक किया जा चुका है; इसलिए क्षीर समुद्र के विपुल जल से वह अनेक बार प्रक्षालित की जा चुकी है; अर्थात् जब-जब तीर्थंकरों का अभिषेक हुआ Jain Education international For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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