Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 28
________________ करने की भी हमारी सामर्थ्य नहीं हैं, तब हम अत्यन्त कठिन निश्चय रत्नत्रय का पालन तो कर ही नहीं सकते; क्योंकि यह एक सुनिश्चित बात है कि जिस महा भार को गजेन्द्र उठा सकता है, उसे कितना भी प्रयत्न क्यों न किया जाए पर बैल नहीं उठा सकता। उसी प्रकार जिस चारित्र के महा भार को बड़े-बड़े मुनीन्द्र उठा सकते हैं, उसे मेरे समान असमर्थ पुरुष नहीं उठा सकते । अर्थात् निश्चय रत्नत्रय का पालन करना बड़े-बड़े मुनियों का काम है, मुझ सरीखा असमर्थ पुरुष उस निश्चय रत्नत्रय का पालन नहीं कर सकता । इसलिए हे कृपानाथ ! मेरे कल्याण के निमित्त मुझे उस रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु कृपा कर ऐसा उपदेश दीजिए, जिससे पूजा तथा उपवास आदि के द्वारा मुझे वह क्रम से प्राप्त हो जाए; क्योंकि मेरे समान पुरुष पूजन आदि के द्वारा ही बड़ी भक्तिपूर्वक तथा ठाट-बाट से उस रत्नत्रय की उपासना कर सकता है ।।२-७।। राजा वैश्रवण के ऐसे भक्ति से गद्गद् वचन सुनकर परम संयमी मुनिराज सुगुप्त ने कहा_ “राजन ! यदि तुम ऊपर कहे गए व्यवहार तथा निश्चय रत्नत्रय का पालन नहीं कर सकते, तो जो आम्नाय (परिपाटी) में प्रचलित है तथा शास्त्रों के अन्दर कहा गया है, उस रत्नत्रय की जो कुछ विधि है, उस विधि को ही तुम करो । सुनो, उस रत्नत्रय की पूजा आदि के क्रम का विधान जिस तरह का है, मैं उसे बतलाता हूँ। उस || विधि के आचरण करने से ही तुम्हें नियम से व्रतों की प्राप्ति होगी। वह विधि इस प्रकार है-- ___कल्याणकारी भादों मास में धर्म के स्थान स्वरूप शुक्ल पक्ष की द्वादशी के पवित्र दिन से मोक्षाभिलाषी भव्य को रत्नत्रय व्रत का पालन करना चाहिए । जो महानुभाव रत्नत्रय व्रत का आचरण करें, उसे चाहिए कि वह उस दिन पवित्र स्वच्छ वस्त्र धारण करे । अपने चित्त में प्रतिक्षण भगवान श्री जिनेन्द्र का ही ध्यान रक्खे एवं पूजा की महामनोहर सामग्री लेकर भक्तिपूर्वक भगवान श्री जिनेन्द्र के मन्दिर में जाए ।।८-११।। मन्दिर में जाकर भगवान श्री जिनेन्द्र आगम तथा गुरुओं को उसे भक्तिपूर्वक प्रणाम करना चाहिए तथा पूजा करनी चाहिए, वहाँ से अपने गृह ||१७ आकर मुनियों के लिए निर्दोष प्रासुक, शुद्ध, मधुर तथा तृप्ति प्रदान करनेवाला पवित्र आहारदान देना चाहिए; उसके बाद जो आहार बचे वह अपने प्राता, बन्धु आदि कुटुम्बियों के साथ सानन्द खाना चाहिए ।।१२-१३।। आहार आदि के आरम्भ में अनेक दोषों का होना सम्भव है; इसलिए उन दोषों के प्रत्याख्यान की अभिलाषा से आहार करने के Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org

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