Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
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कहा गया है, उन्हें विशिष्ट सम्मान के साथ भक्तिपूर्वक बुला कर अत्यन्त हर्ष से आहार, औषध आदि दान देना चाहिए ।।५१-५२।। प्रभावना अंग का स्वरूप ऊपर जहाँ, पर सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का स्वरूप कहा है, वहाँ विस्तार से कह दिया है, इसलिए जो महानुभाव रत्नत्रय व्रत के पालक हैं, उन्हें भगवान जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य प्रकट कर एवं मन्दिरों के अन्दर भी अनेक प्रकार के बहुविध उत्सव करा कर सम्यग्दर्शन के प्रधान अंग प्रभावना का पालन करना चाहिए ।।५३।। यह तो हुई अत्यन्त व्यवसाध्य उद्यापन की बात, किन्तु जो महानुभाव इतना व्यय कर उद्यापन करने में असमर्थ हैं--उद्यापन के लिए इतना अधिक व्यय नहीं उठा सकते, उन्हें चाहिए कि वे अपनी शक्ति के अनुसार भक्ति एवं हर्ष के साथ थोड़ा ही उद्यापन करें-उन्हें उतने ही उद्यापन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी; परन्तु जो महानुभाव इतने में भी असमर्थ हैं कि थोड़ा-सा भी उद्यापन का विधान नहीं कर सकते, उन्हें चाहिए कि वे रत्नत्रय व्रत का जो विधान बतलाया गया है, विशुद्ध भावों से उसका दूना विधान करें अर्थात् तीन वर्ष की जगह वे छः वर्ष || तक रत्नत्रय का विधान लगातार करें, ऐसा होने से उन्हें उद्यापन करने की फिर आवश्यकता नहीं ।।५४-५५।। यह || रत्नत्रय व्रत असीम पुण्य के अर्जन का कारण है । स्वर्ग का कारण है, संसार के समस्त पापों का सर्वथा नाश करनेवाला है एवं मुक्तिरूपी महादुर्लभ लक्ष्मी को वश में करनेवाला है ।।५६।। रत्नत्रय व्रत की प्रशंसा करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि परम सुख का स्थान स्वरूप एवं समस्त व्रतों में सार इस रत्नत्रय व्रत को जो महानुभाव | धारण करते हैं, वे सोलहवें स्वर्ग के सुख का लाभ करते हैं एवं धीरे-धीरे अनुक्रम से वे अविनाशी मोक्ष सुख का भी रसास्वादन करते हैं ।।५७।।"
मुनिराज सुगुप्त के मुख से रत्नत्रय का माहात्म्य सुन कर राजा वैश्रवण को परमानन्द प्राप्त हुआ। भक्तिपूर्वक उसने रत्नत्रय व्रत धारण किया एवं विनयपूर्वक मुनिराज को नमस्कार कर वह अपने राज-मन्दिर में आ गया ।।५८।। || राज-मन्दिर में आकर राजा वैश्रवण में परम भक्ति एवं श्रद्धा के साथ मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति के लिए रत्नत्रय व्रत का | २२ प्रारम्भ किया एवं वास्तविक रीति से उसे पूरा किया ।।५६।। व्रत के अन्त में उद्यापन के समय राजा वैश्रवण ने भगवान श्री जिनेन्द्र के अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया तथा महान् उत्सव का समारम्भ किया ।।६०।। तब राजा वैश्रवण ने अन्य जिन-मन्दिरों में तथा राज-परिसर के जिन-मन्दिरों में समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करनेवाली
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