Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 44
________________ FFFF चित्त होकर अन्त में समाधि के द्वारा समस्त लोगों के हितकारी इन दश प्राणों का परित्याग किया ।।२६।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तप के सम्बन्ध से मुनिराज वैश्रवण के महा पुण्य का उदय हो चुका था; इसलिये उस तीव्र पुण्य के उदय से उन्होंने विजय, वैजयन्त,जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि--ये जो पाँच अनुत्तर विमान हैं, उनमें चौथे अपराजित विमान में जन्म लिया तथा वहाँ पर शिला के मध्यभाग में एक अत्यन्त दिव्य कोमल शैय्या बनी हुई है, जो कि अपने महा उज्ज्वल श्वेत रत्नों की प्रभा से समस्त अन्धकार को नष्ट करनेवाली है, उस कोमल शैय्या ||श्रा पर उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद का लाभ किया ।।२७-२८।। अपनी उत्पत्ति काल के दो घढ़ी बाद उस अहमिन्द्र ने द्रिव्य अनुपम तथा महान ऐसी पूर्ण दिव्यमाला, वस्त्र तथा यौवन अवस्था को प्राप्त भूषणों से स्वयं को भूषित लि किया । इसके बाद महान ऋद्धि का धारी वह अहमिन्द्र देव उस अनुपम शैय्या से उठा तथा आश्चर्य से विस्मित हो उसने समस्त दिशाओं में तथा अहमिन्द्रों के विमानों को बड़े ध्यान से देखा । उसके बाद उसे क्षणभर में अवष्टि ज्ञान प्राप्त हो गया एवं “पहिले जन्म में मैंने रत्नत्रय व्रत तथा उत्तम तप का आचरण किया था, उसका यह फल है"--ऐसा अवधिज्ञान के बल से जान लिया, जिससे उसका समस्त आश्चर्य दूर हो गया ।।२६-३१।। ग्रन्थकार उपदेश देते हैं कि व्रत का माहात्म्य बड़ा ही आश्चर्यकारी है । देखो ! कहाँ तो राजा वैश्रवण का जीव मुनि अवस्था में था || तथा कहाँ जाकर अपराजित नाम के अनुत्तर विमान में महान् ऋद्धि का धारक अहमिन्द्र हो गया, इसलिये सत्पुरुषों || को चाहिये कि वे इस परम आश्चर्यकारी व्रत का माहात्म्य अच्छी तरह विचार कर सदा अपनी उत्कृष्ट बुद्धि को धर्म के अन्दर ही लगावें-- किसी भी अवस्था में धर्म के स्वरूप को न बिसारें ।।३।। जिस समय उस अहमिन्द्र को अपने स्वरूप का पर्णरूप से ज्ञान हो गया. तब वह सबसे पहिले श्री भगवान जिनेन्द्र के मन्दिर में गया तथा वह स्मरण करते ही सामने आनेवाले अनुपम मनोहर ऐसे जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप तथा फल रूपी दिव्य सामग्री से बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक अन्य अहमिन्द्रों के साथ भगवान श्री जिनेन्द्र की भक्तिपूर्वक महापूजा ||३३ की ।।३३-३४।। महापजा के बाद बडी भक्ति से भगवानको नमस्कार किया. ललित शब्दों में स्तति की एवं अत्यन्त आश्चर्य करनेवाला उत्सव किया, जिससे उसे बहुत प्रकार के पुण्य की प्राप्ति हुई; तत्पश्चात् वह अपने स्थानस्वरूप विमान में आ गया ।।३५।। वह अहमिन्द्र का जीव निर्मल स्फटिकमय रिझानेवाले अत्यन्त सुन्दर, समस्त प्रकार की Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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