Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ अन्धकार नष्ट हो जाता था । इस प्रकार उस दिन से वह कुबेर राजा एवं रानी के मनोहर महल में बड़े आनन्द से रत्नों की वर्षा करने लगा ।।६३-६४।। उस समय राजा कुम्भ के समस्त आँगन को रत्न एवं सुवर्ण आदि से परिपूर्ण देख कर मनुष्यों ने उसे साक्षात् धर्म का प्रसाद समझा एवं उस दिन से उन्होंने धर्म के अन्दर विशेष रूप से चित्त लगाया ।।६५| वह कुबेर पुण्य फल की प्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिदिन रत्न-वृष्टि करता था; इसलिए छः मास पर्यंत वह राजा कुम्भ के महल को सुवर्ण एवं रत्नों से प्रतिदिन भर दिया करता था ।।६।। कदाचित महारानी प्रजावती अपने शयनागार में अत्यन्त कोमल मनोहर शैय्या पर सो रही थी कि अकस्मात जब रात्रि का कुछ ही अंश शेष रह गया, तब उस समय उसने महा मनोहर सोलह स्वप्न देखे। सबसे पहिले स्वप्न में उसने इन्द्र का ऐरावत गजराज (१) देखा जो कि महामनोहर व अत्यन्त विशाल था। उसके बाद बडा ऊँचा बैल (२) देखा जो कि अत्यन्त श्वेत कांति का धारक था। उसके बाद अत्यन्त पराक्रमी सिंह (३) देखा जो कि चन्द्रमा की कांति के समान तेज का धारक था। उसके बाद लक्ष्मी (४) देखी जो कि महामनोहर सिंहासन पर दुग्ध के घड़ों के स्नान कराई जा रही थी। उसके बाद दो पुष्प मालाएँ (५) देखीं, जिनकी सुगंधि से समस्त दिशाएँ सुगंधित हो रही थीं। फिर आकाश में महामनोहर अखण्ड चंद्रमा (६) देखा, जो कि अपने परिकर ताराओं के समूह से विभूषित था । उसके बाद अत्यन्त दैदीप्यमान सूर्य (७) देखा, जिसकी प्रभा से समस्त अन्धकार विनष्ट हो रहा था। उसके बाद दो सुवर्णमयी घट (८) देखे, जिनका कि मुख कमलों से ढंका हुआ था। उसके बाद कमलों से परिपूर्ण सरोवर में किलोल करता हुआ मीनों का जोड़ा (E) देखा, तत्पश्चात् विशाल स्थिर सरोवर (१०) देखा, जो कि सर्वत्र कमलों से विभूषित था। उसके बाद उफनता हुआ समुद्र (११) देखा, जिसका जल तीर से भी ऊपर बहता था। उसके बाद एक सुवर्णमय महामनोहर सिंहासन (१२) देखा, उसके बाद देवों का स्थान स्वर्ग (१३) देखा, जो कि अपनी जगमगाती हुई कांति से अत्यन्त शोभायमान था, उसके बाद नागेन्द्र का भवन (१४) देखा, जो कि कांति से जगमगाता हुआ अत्यन्त विशाल था, उसके बाद जगमगाती हुई रत्नों की राशि (१५) देखी, जिनकी उग्र प्रभा से अन्धकार तक दीख नहीं पड़ता था, उसके बाद जलती हुई अग्नि की शिखा (१६) देखी, जिसमें धुवाँ का नामोनिशान तक भी न था ।।६७-१०।। जिस समय वह महादेवी उपर्युक्त सोलह स्वप्न देख चुकी, उस समय अन्त में उसने क्या देखा कि एक Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116