Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 57
________________ स्वर्ग के इन्द्र ने समस्त देवों के साथ धर्म की प्राप्ति की अभिलाषा से गर्भ में आये हुए भगवान श्री जिनेन्द्र के गुणों का भक्तिभाव से स्मरण किया एवं गर्भवती माता प्रजावती के दोनों चरण कमलों को मणिमयी मुकुटों से चमचमाते हुए अपने मस्तकों से हर्षपूर्वक नमस्कार किया ।।२७-२८।। उसके बाद इन्द्र आदि देवों ने भगवान श्री मल्लिनाथ के माता-पिता दोनों की पूजा की; दिव्य भूषण आदि प्रदान कर सम्मान किया एवं इस प्रकार पवित्र कार्य को पूरा कर वे समस्त देव अपने-अपने स्थानों पर चले गए ।।२६।। उस दिन से छप्पन दिक्कुमारियाँ इन्द्र की आज्ञा से सदा म|| माता के पास रहने लगी एवं जिसे जो कार्य करने के लिए सौंपा जाता था, उसे आनन्दपूर्वक पूरा कर अपने को कल्याण की प्राप्ति हो, इस अभिलाषा से वे माता प्रजावती की बड़ी भक्ति से सेवा करने लगीं ।।३०।। उनमें बहुत-सी कुमारियाँ माता के चित्त को प्रसन्न करने के लिए मांगलिक पदार्थ हाथ में लेकर खड़ी रहती थीं । बहुत सी माता को भाँति-भाँति के भूषण पहिनाती थीं। कोई-कोई उन्हें वस्त्र पहिनाती थीं एवं मालाएँ प्रदान करती थीं, बहुत-सी | माता का श्रृंगार करती थीं। कोई-कोई उबटन आदि लगा कर माता के लिए स्नान की तैयारियाँ करती थीं । बहुत-सी || कुमारियाँ उनके शरीर की रक्षा करती थीं । बहुत-सी कुमारियाँ 'माता को सुख मिले' ऐसे उपायों को रचा करती थीं । कोई-कोई देवांगना माता के रहने के महल को झाड़-बुहार कर साफ करती थीं, बहुत-सी कुमारियाँ माता की इच्छानुसार बड़ी स्वादिष्ट रसोई करती थीं । कोई-कोई देवांगनाएँ माता के महल में मणिमयी दीपक जलाती थीं। कोई-कोई बालक के जन्मकाल में जो गीत गाए जाते हैं, उन गीतों को गाती थीं। कोई-कोई महामनोहर शब्द | करनेवाले वाद्य बजाती थीं। कोई-कोई महामनोहर नृत्य करती थीं एवं कोई-कोई कुमारियाँ नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ एवं मन को प्रसन्न करनेवाली कथाएँ कहती थीं । इस प्रकार वे समस्त कुमारियाँ भाँति-भाँति की मनोहर क्रियायें कर माता का चित्त अत्यन्त प्रसन्न रखती थीं ।।३१-३४।। भगवान श्री मल्निाथ के गर्भ में आते ही कुबेर को भी परमानन्द हुआ था। इसलिए नौ मास पर्यन्त बड़ी ऋद्धि के साथ वह निरन्तर प्रतिदिन उनके महल में सुवर्ण एवं ||४६ भाँति-भाँति के रत्नों की वर्षा करता रहता था।|३५| आठ महीनों के बीत जाने पर जब नवमें मास का आरम्भ हुआ, उस समय गर्भवती माता प्रजावती के समीप में बैठ कर वे देवांगनाएँ गूढार्थक अर्थात् जिनका अर्थ गूढ़ होता था, हर एक नहीं समझ सकता था, ऐसे श्लोकों से एवं नाना प्रकार के उत्तमोत्तम प्रश्नों से माता के मन को रिझाती थीं For Private & Personal Use Only Jain Education interational www.jainelibrary.org.

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