Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 27
________________ रत्नत्रय दुःखरूपी दावानल को बुझानेवाला है । समस्त प्रकार के दोषों से रहित निर्दोष है । मोक्षाभिलाषी भव्यजीव सदा इसकी सेवा करते हैं एवं असाधारण है, हर एक को प्राप्त नहीं हो सकता । मैं भगवान मल्लिनाथ को मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि भगवान मल्लिनाथ समस्त प्रकार के अनर्थों को जड़ से उखाड़ कर फेंकनेवाले हैं । उत्कृष्ट प्रयोजन को प्रदान करनेवाले हैं, स्वर्ग एवं मोक्ष को देनेवाले हैं । उत्कृष्ट हैं, अनन्त गुणों के समुद्र हैं, संसार के समस्त भयों को सर्वथा नष्ट करनेवाले हैं । विश्वास के प्रधान कारण हैं एवं आठों कर्मों के जीतनेवालों में प्रथान हैं तथा भगवान मल्लिनाथ ने जिस मार्ग का अनुसरण किया है, उसी मार्ग एवं उसी स्वरूप को प्रदान करनेवाले सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय को मैं भी मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ; क्योंकि यह रत्नत्रय ही समस्त प्रकार के अनर्थों का सर्वथा नाश करनेवाला है; उत्कृष्ट प्रयोजन का उत्पादक है; स्वर्ग एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाला है; उत्कृष्ट है; अनन्त गुणों का भण्डार है; समस्त संसार के भय को नष्ट करनेवाला है एवं आस्था का एक प्रधान कारण | है ।।११५-११६।। ___इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा विरचित मल्लिनाथ पुराण में रत्नत्रय का वर्णन करने वाला पहिला परिच्छेद समाप्त हुआ ॥॥ द्वितीय परिच्छेद संसार में मोहनीय-कर्म अत्यन्त बलवान है । जिन्होंने बलवान बैरी मोहनीय-कर्मरूपी मल्ल को सर्वथा नष्ट कर | दिया है, जो भयंकर शत्रु कामदेव एवं इन्द्रियों का पूर्णरूप से घात करनेवाले तथा तीर्थंकर हैं, ऐसे श्री मल्लिनाथ स्वामी को उन्हीं के तुल्य समस्त शक्ति प्राप्त करने के लिए मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।।१।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय के स्वरूप को जतलानेवाले वैराग्य के उत्पादक मुनिराज सुगुप्त के वचन सुन राजा वैश्रवण ने उक्त प्रकार के रत्नत्रय के पालन करने में अपने को असमर्थ समझा, इसलिये विनयपूर्वक वह यह १६ कहने लगा--'कृपानाथ ! मुझ सरीखे मनुष्य सदा आर्तध्यान में लीन रहनेवाले हैं, सदा हम लोगों की बुद्धियाँ विनष्ट सरीखी रहती हैं । धन, कुटुम्ब आदि में सदा मोही रहते हैं । पाँचों इन्द्रियों के विषयों की ओर सदा हमारी परिणति झुकी रहती है तथा गृहस्थी के क्रियाकलापों में सदा संलग्न रहते हैं, इसलिए भगवन ! जब व्यवहार रत्नत्रय के पालन Jain Education international For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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