Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 22
________________ FFFF को अज्ञानी जीव करोड़ों भव में खपा सकता है; उसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्तिरूप तीनों गुप्तियों का धारक एवं संवर से भूषित ज्ञानी जीव आधे ही क्षण में मूल से उखाड़ कर फेंक देता है ।।७३-७४।। ग्रन्थकार सम्यग्ज्ञान की सर्वोच्च प्रशंसा करते हुए कहते हैं--यह सम्यग्ज्ञान ऐसा अनुपम मन्त्र है कि इसके द्वारा खिंची (आकर्षित) हुई मोक्षरूपी स्त्री भी आप-से-आप आकर प्राप्त हो जाती है, फिर अन्य देवांगनाओं की प्राप्ति हो जाना यह तो अत्यधिक सुलभ कार्य है । इसलिये सम्यग्ज्ञान तत्व हमारा परम कल्याणकारी है, ऐसा अच्छी तरह जान कर जो महानुभाव मुमुक्षु हैं--मोक्ष प्राप्त करने की पूरी-पूरी अभिलाषा रखते हैं--उन्हें चाहिये कि वे निःप्रमादरूप यन्त्र से || अर्थात् किसी प्रकार का मन में प्रमाद न रख कर भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित विनय आदि रूपी ज्ञान का प्रतिदिन आराधन करें, कभी भी उसे चित्त से न बिसारें ।।७६।। मन-वचन-काय की क्रियाओं के द्वारा जो हिंसादि समस्त पापों का त्याग कर देना है, वह व्यवहार चारित्र कहा | जाता है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह --ये पाँच पाप हैं एवं इन पाँचों पापों का त्याग, अहिंसा, आदि 'व्रत' कहे जाते हैं। उन अहिंसा आदि व्रतों का स्वरूप इस प्रकार है-- ____समस्त जीवों की रक्षा करना अहिंसा महाव्रत कहा जाता है । झूठ आदि का त्याग करना सत्यमहाव्रत है । चोरी | आदि का सर्वथा त्याग अचौर्य महाव्रत है। स्व-स्त्री, पर-स्त्री आदि समस्त स्त्रियों का सर्वथा त्याग कर देना ब्रह्मचर्य महाव्रत है तथा बाह्य आभ्यन्तर समस्त प्रकार के परिग्रह का सर्वथा नाश कर देना आकिंचन्य--निष्परिग्रह महाव्रत है। गुप्ति का अर्थ रक्षा करना है एवं वह मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति के भेद से तीन प्रकार की है। किसी भी पदार्थ में अच्छे-बुरे संकल्पों का होना मन का विषय है, जहाँ पर समस्त संकल्प-विकल्पों का त्याग हो, वह मनोगुप्ति है। सदा मौन रखना वचनगुप्ति है, इसका पालन करने से संवर की प्राप्ति होती है तथा शरीर की समस्त क्रियाओं का अभाव हो जाना अन्तिम कायगुप्ति है ।।७८-८१।। जूरा प्रमाण भूमि को शोध कर चलना ईर्यासमिति है, निर्दोष हितकारी एवं परिमित वचन बोलना भाषासमिति है । जहाँ पर कृत, कारित एवं अनुमोदना से किए गए आहार का त्याग है, आहार में आनेवाले अन्तरायों का टालना है तथा उद्गम आदि छयालीस (४६) दोषों का रहितपना है, वह एषणासमिति है । पुस्तक, पीछी, कमण्डलु आदि को दयापूर्वक अच्छी तरह देख-भाल कर ग्रहण Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org

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